ग़ज़ल के दोष:
राणा प्रताप सिंह
*
आइये कुछ बात करते हैं ग़ज़ल के दोषों के बारे में| मुझे जो भी ज्ञान अपने
गुरुवों आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर, गुरुदेव पंकज सुबीर जी (उनके ब्लॉग
सुबीर संवाद सेवा से) और डाक्टर कुंवर बेचैन की पुस्तक (ग़ज़ल का व्याकरण)
से प्राप्त हुआ है उसे आपके समक्ष रखना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ| आशा है आप सभी
लाभान्वित होंगे|
सबसे पहले बात करते हैं काफिये के दोष की| अक्सर हम देखते हैं कि लोग काफियों के दोष में अक्सर फंस जाते हैं| यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि
जो काफिया हमने ग़ज़ल के मतले में ले लिया उसे पूरी ग़ज़ल में निभाना हमारा
फ़र्ज़ बन जाता है| नीचे के कुछ उदहारण बात को और भी स्पष्ट कर सकेंगे|
१. मात्राओं का काफिया-
-जैसे अगर हमने जीता और सीखा काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे आ
की मात्रा आये जैसे गाया, निभाया, सताया आदि|
उदाहरण देखिये
तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है (यहाँ पर रखा है तो रदीफ़ हो गया और लगा और जला में आ की मात्रा सामान है इसलिए नीचे के शेर में भी आ की मात्रा का ही काफिया चलेगा)
इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है
दिल था एक शोला मगर बीत गये दिन वो क़तील,
अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है
-जैसे अगर हमने जीती और सीखी काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे ई की मात्रा आये जैसे गयी , निभायी, सताई
आदि|
यहीं नियम अन्य मात्राओं के लिए भी लागू होता है|
२. अक्षरों का काफिया
-जैसे हमने मतले में जीता और पीता काफिये ले लिए अगर आप गौर से देखें तो यहाँ भी आ की मात्रा ही है परन्तु ईता दोनों काफिये में सामान है इसलिए हमें बाकी के शेरों में भी ऐसे ही काफिये लेने होंगे जिसमे अंत में ईता आये जैसे रीता| अगर मतले में जीता के साथ खाता लिया होता तो बाकी के काफियों में ता होता जैसे की रोता|
उदाहरण देखिये (कतील शिफाई)
कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ
थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ
छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ
आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ
३. अनुनासिकता
-हिंदी के कई शब्दों में बिंदी होती है, तो वही कानून यहाँ भी लागू होता है की अगर मतले के दोनों काफियों में बिंदी
है तो बाकी के हर शेरों के काफियों में भी बिंदी होगी| नहीं, कहीं के साथ यहीं और वहीँ जैसे ही काफिये चलेंगे सही नहीं|
उदाहरण देखिये
राणा प्रताप सिंह
*
आइये कुछ बात करते हैं ग़ज़ल के दोषों के बारे में| मुझे जो भी ज्ञान अपने
गुरुवों आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर, गुरुदेव पंकज सुबीर जी (उनके ब्लॉग
सुबीर संवाद सेवा से) और डाक्टर कुंवर बेचैन की पुस्तक (ग़ज़ल का व्याकरण)
से प्राप्त हुआ है उसे आपके समक्ष रखना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ| आशा है आप सभी
लाभान्वित होंगे|
सबसे पहले बात करते हैं काफिये के दोष की| अक्सर हम देखते हैं कि लोग काफियों के दोष में अक्सर फंस जाते हैं| यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि
जो काफिया हमने ग़ज़ल के मतले में ले लिया उसे पूरी ग़ज़ल में निभाना हमारा
फ़र्ज़ बन जाता है| नीचे के कुछ उदहारण बात को और भी स्पष्ट कर सकेंगे|
१. मात्राओं का काफिया-
-जैसे अगर हमने जीता और सीखा काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे आ
की मात्रा आये जैसे गाया, निभाया, सताया आदि|
उदाहरण देखिये
तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है (यहाँ पर रखा है तो रदीफ़ हो गया और लगा और जला में आ की मात्रा सामान है इसलिए नीचे के शेर में भी आ की मात्रा का ही काफिया चलेगा)
इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है
दिल था एक शोला मगर बीत गये दिन वो क़तील,
अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है
-जैसे अगर हमने जीती और सीखी काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे ई की मात्रा आये जैसे गयी , निभायी, सताई
आदि|
यहीं नियम अन्य मात्राओं के लिए भी लागू होता है|
२. अक्षरों का काफिया
-जैसे हमने मतले में जीता और पीता काफिये ले लिए अगर आप गौर से देखें तो यहाँ भी आ की मात्रा ही है परन्तु ईता दोनों काफिये में सामान है इसलिए हमें बाकी के शेरों में भी ऐसे ही काफिये लेने होंगे जिसमे अंत में ईता आये जैसे रीता| अगर मतले में जीता के साथ खाता लिया होता तो बाकी के काफियों में ता होता जैसे की रोता|
उदाहरण देखिये (कतील शिफाई)
अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
(यहाँ पर चाहता हूँ तो रदीफ़ हो गया और सजाना और गुनगुनाना में आना समान है इसलिए नीचे के शेर में भी आना वाले ही काफिये चलेंगे)
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
(यहाँ पर चाहता हूँ तो रदीफ़ हो गया और सजाना और गुनगुनाना में आना समान है इसलिए नीचे के शेर में भी आना वाले ही काफिये चलेंगे)
कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ
थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ
छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ
आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ
३. अनुनासिकता
-हिंदी के कई शब्दों में बिंदी होती है, तो वही कानून यहाँ भी लागू होता है की अगर मतले के दोनों काफियों में बिंदी
है तो बाकी के हर शेरों के काफियों में भी बिंदी होगी| नहीं, कहीं के साथ यहीं और वहीँ जैसे ही काफिये चलेंगे सही नहीं|
उदाहरण देखिये
रची है रतजगो की चाँदनी जिन की जबीनों में
"क़तील" एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों में
"क़तील" एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों में
वो जिन के आँचलों से ज़िन्दगी तख़लीक होती है
धड़कता है हमारा दिल अभी तक उन हसीनों में
धड़कता है हमारा दिल अभी तक उन हसीनों में
ज़माना पारसाई की हदों से हम को ले आया
मगर हम आज तक रुस्वा हैं अपने हमनशीनों में
मगर हम आज तक रुस्वा हैं अपने हमनशीनों में
तलाश उनको हमारी तो नहीं पूछ ज़रा उनसे
वो क़ातिल जो लिये फिरते हैं ख़ंज़र आस्तीनों में
वो क़ातिल जो लिये फिरते हैं ख़ंज़र आस्तीनों में
आभार- ओबीओ
*********************
राणा भाई इस ज्ञान वर्धक पहल का खुले दिल से स्वागत| इस तरह की पोस्ट्स की बेहत सख़्त ज़रूरत है हम लोगों को| सीखने के लिए इस से बेहतर और हो भी क्या सकता है| भाई योगराज जी और पंकज जी से अर्जित ज्ञान को इसी तरह मित्रों से साझा करते रहें, यही प्रार्थना है|
जवाब देंहटाएंअपने और अन्य मित्रों के वास्ते थोडा और विस्तार से समझने के लिए कुछ प्रश्न रखता हूँ:-
अगर मतले के दोनो मिसरों में 'आना' और 'जाना' लिए जाएँ, तो बाकी के मिसरों में भी क्या वही काफ़िए लेने चाहिए जहाँ अंत में 'ना' आए? मसलन 'गाना' 'रहना' आदि! या फिर 'साया' सीखा' बोला' की तरह के काफ़िए भी ले सकते हैं?
इसी तरह 'जाता', 'पाया', 'बच्चा' और 'करता' जैसे शब्द अगर मतले में लिए जाएँ तो ऐसे मामलों में क्या होगा?
सभी मित्रों से प्रार्थना है कि अपने अपने अर्जित ज्ञान को बाँटने आगे आएँ| जो हम जानते हैं, दूसरो से साझा करें और जो नहीं जानते वो सीखने का प्रयास करें|
नविन भाई आपने जैसा कहा "अगर मतले के दोनो मिसरों में 'आना' और 'जाना' लिए जाएँ, तो बाकी के मिसरों में भी क्या वही काफ़िए लेने चाहिए जहाँ अंत में 'ना' आए? मसलन 'गाना' 'रहना' आदि! या फिर 'साया' सीखा' बोला' की तरह के काफ़िए भी ले सकते हैं?"
जवाब देंहटाएंमेरे जानकारी के अनुसार काफिया तय करने हेतु मतले का दोनों मिसरा जरूरी है यदि पहले मिसरा मे "आना" आ रहा हो और दुसरे मे "जाना" तो दोनों मे जो common है वो है "आ की मात्रा + ना" मतलब काफिया निर्धारित हो गया जिसमे आ की मात्रा और ना हो जैसे नहाना, बनाना, खाना, गाना किन्तु रहना, साया , सिखा , बोला नहीं होगा |
आप ने कहा "इसी तरह 'जाता', 'पाया', 'बच्चा' और 'करता' जैसे शब्द अगर मतले में लिए जाएँ तो ऐसे मामलों में क्या होगा?"
नविन भाई जैसा मैने ऊपर लिखा कि काफिया निर्धारण हेतु मतले का दोनों मिसरा आवश्यक है अतः इस प्रश्न का जबाब संभव नहीं होगा |
जितना सिखा हूँ वो आप सब के साथ बाट रहा हूँ यदि कुछ गलत होगा तो राणा जी, योगराज सर और अन्य फनकार सहयोग करेंगे कृपया |
प्रिय नवीन भाई / गणेश बाग़ी भाई,
जवाब देंहटाएंआपने काफिये के बारे में एक बहुत ही अहम् सवाल पूछा है ! मैंने कुछ समय
पहले इस विषय में अपनी जानकारी के अनुसार कुछ लिखा भी था ! काफिये पर पूछे
गए आपके इस सवाल पर मैं अपनी राय देना चाहूँगा ! "आना", "जाना", या "खाना"
इत्यादि काफियों में व्यंजन "न" को इल्म-ए-अरूज़ में "हर्फ़-ए-रवी" कहा गया
है ! "न" को "हर्फ़-ए-रवी" लेकर ये बंदिशनुमा स्वीकृति दे दी जाती है कि ग़ज़ल
के आईंदा मिसरों में व्यंजन "न" ही काफिये का "हर्फ़-ए-रवी" रहेगा ! लेकिन
इसके बर-अक्स यदि मतले में "आना" के साथ "पाया", खाया" "गया"
"रोका","पीता", "टूटा" इत्यादि को प्रयोग किया गया हो तब "हर्फ़-ए-रवी"
(व्यंजन "न") की बंदिश बाकी नहीं रहेगी ! मगर एक दफा किसी व्यंजन विशेष को
"हर्फ़-ए-रवी" मुक़र्रर करने के बाद उस में किसी प्रकार की भी तबदीली मेरे नज़दीक जायज़ नहीं मानी जाएगी ! सादर !
इस परिचर्चा को वेग प्रदान करने हेतु एक बार फिर से शुक्रिया गणेश भाई| मुझे भी विद्वतजन के परामर्शों की प्रतीक्षा है|
जवाब देंहटाएंठीक से याद नहीं आ रहा, पर उर्दू के मशहूर शायरों की शायद ऐसी कई ग़ज़लें पढ़ी हुई लग रही हैं जिन में काफ़िए इस तरह के थे:-
बच्चा नहीं
देखा नहीं
लाया नहीं
उगता नहीं
उस का नहीं
आता नहीं
वो मैं था नहीं
चर्चा नहीं
हटता नहीं
फेंका नहीं
पलटा नहीं
पलता नहीं
ऊँचा नहीं
माँगा नहीं
आदि आदि आदि
प्रश्न उठता है कि क्या ये ऊपर लिखे काफ़िए ठीक हैं?
अब अगर ऊपर वाले काफ़िए अलाउड हैं, तो फिर जाना, करना, देना, उठना के बारे में क्या विधान बनता है? क्या यहाँ 'न', 'त', 'य' या ऐसे ही किसी और व्यंजन का आना कुछ प्रभाव डालता है? शायद कुछ ऐसा हो भी!
इसी सन्दर्भ में इस परिचर्चा को मंच पर रखा गया है| ताकि एक दूसरे से बातें करते करते हम लोग काफ़िए के बारे में और अधिक जानकारी हासिल कर पाएँ|
इस के बाद हर्फ गिराने को लेकर, रुक्नों की मात्राओं को लेकर, उर्दू न जानने वाले वो लोग जो सिर्फ़ देवनागरी में ही लिखते / पढ़ते / समझते हैं, ऐसे सारे विषयों पर हम एक एक कर के चर्चा करेंगे|
सभी मित्रों से पुन: प्रार्थना है कि अपने अपने अर्जित ज्ञान को सभी के साथ बाँटने की कृपा करें|
नवीन भैया
जवाब देंहटाएंऊपर दिए गए काफिये बिलकुल जायज़ हैं| स्थिति बिलकुल स्पष्ट है की मतले से काफियों का निर्धारण हो जाता है बस इतना ही ख़याल रखना है की काफिये दिए गए वजन में हो और मतले के कानून का पालन करते हो|
उदहारण के लिए आपका लिया गया काफिया बच्चा और देखा, इनमे केवल आ की मात्रा सामान है इसे अलिफ़ का काफिया कहते हैं इसलिए बाकि के काफियों में हमें केवल अंत में आ की मात्रा ही देखनी है इसलिए बाकि के काफिये लाया, उगता, का आदि सटीक हैं पर यहाँ पर हंसा का काफिया नहीं चल सकेगा यद्यपि इसमे भी अंत में आ की ही मात्रा है पर ये गौरतलब है की मतले में वज्न २२ का आ रहा है तो बाकि के काफिये में भी वजन २२ का ही आये.... खैर ये तो बाद की बात है वज्न की चर्चा हम बाद में करेंगे|
बच्चा, देखा, पाया, उगता और हंसा [hansa] की मात्राएँ समान नहीं होती?
जवाब देंहटाएंनवीन भैया मैं हँसा(laugh) की बात कर रहा था, हँसा(laugh) की मात्रा १२ है जबकि बाकियों की २२ है|
जवाब देंहटाएंjankariyan aapne achchi di hai. aabhar. sabse achcha to aapke blog ka naam hai.
जवाब देंहटाएं