मुक्तिका:
कौन चला वनवास रे जोगी?
संजीव 'सलिल'
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कौन चला वनवास रे जोगी?
अपना ही विश्वास रे जोगी.
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बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी प्यास रे जोगी.
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भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी.
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फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
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गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में रास रे जोगी.
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अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
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माली बाग़ तितलियाँ भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
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जो आया है वह जायेगा
तू क्यों हुआ उदास रे जोगी.
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जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
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राग-तेल, बैराग-हाथ ले
रब का 'सलिल' खवास रे जोगी.
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नेह नर्मदा नहा 'सलिल' सँग
तब ही मिले उजास रे जोगी.
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मंगल की खोज, सदियों की खोज में जुटे व्यक्तियों का वर्तमान से विमुखता पर करारा व्यंग्य आचार्य जी|
जवाब देंहटाएंkhubsurat bemisal
जवाब देंहटाएंवाह वाह ...अति उत्तम ..सुन्दर ..कमाल ही कमाल
जवाब देंहटाएंवाह आचार्य जी वाह,
जवाब देंहटाएंबेहतरीन मुक्तिका है, जल बचाने की चिंता, जो आयेगा वो जायेगा का शाश्वत सत्य, अंतर से अंतर मिटाने का मंतर , सब कुछ तो बता दिया है आपने |
सब मिलाकर एक बेहतरीन काव्यकृति |
अंतिम पद मे मुझे लगता है कि टंकण त्रुटी के कारन संग की जगह सँग हो गया है |
बधाई आचार्य जी इस शानदार प्रस्तुति पर ....
अति सुंदर. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअति सुंदर....अति उत्तम ....
जवाब देंहटाएंरवि नवीन भास्कर गणेश संग
जवाब देंहटाएंआया है राकेश रे जोगी.
विनय शारदा से है इतनी
सबको मिले उजास रे जोगी..
बहुत ही बढ़िया काव्य की सुन्दरतम अभिव्यक्ति !!!
जवाब देंहटाएंजो है उसको अनदेखा कर अनदेखे की आस करना,अपने अंतर्मन को टटोलने की सलाह ,मृत्यु शाश्वत सत्य जैसे कितने आवश्यक विषयों को पिरोया है आपने मुक्तिका की इस लड़ी में.. वाह !
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