बुधवार, 10 नवंबर 2010

दोहा मुक्तिका: रमा रमा में... -- संजीव 'सलिल'

                                                                                        दोहा मुक्तिका:

रमा रमा में...  

संजीव 'सलिल' 
रमा रमा में मन रहा, किसको याद गणेश? 
बलिहारी है समय की, दिया जलायें दिनेश.. 
बम फूटे धरती हिली, चहुँ दिशि भीति अशेष. 
भूतल-नीचे दिवाली, मना रहे हैं शेष.. 
आतंकी कश्मीर में, मरघट रम्य प्रदेश. 
दीवाली में व्यस्त है, सारा भारत देश.. 
सरहद पर चीनी चढ़े, हमें न चिंता लेश. 
चीनी झालर से हुआ, चिंतित दिया विशेष.. 
संध्या रजनी उषा को, छले चन्द्र गगनेश, 
करे चाँदनी शिकायत, है रक्तिम अरुणेश.. 
फुलझड़ियों के बीच में, बनता बाण सुरेश. 
निकट न जा जल जायेगा, दे चकरी उपदेश.. 
अंधकार ना कर सके, मन में कभी प्रवेश. 
आत्म-ज्योति दीपित रखें, दो वर हे कलमेश.. 
दीप-ज्योति शब्दाक्षर, स्नेह सरस रसिकेश. 
भाव उजाला, बिम्ब तम, रम्य अर्थ सलिलेश.. 
शक्ति-शारदा-लक्ष्मी, करिए कृपा हमेश. 
'सलिल' द्वार दीपावली, सदा रहे दर-पेश.. 
*

4 टिप्‍पणियां:

  1. Navin C. Chaturvedi
    सलिल जी:
    चीन के व्यावसायिक प्रयास और सरहद की रणनीति पर बहुत ही करारा कटाक्ष है
    कश्मीर वाला दोहा तो तालियों की बादशाहत का अकेला योग्य उम्मीदवार लग रहा है|
    चकरी के संदेश वाला प्रयोग भी बहुत ही रुचिकर और अप्रतिम हैं
    अंतिम दोहे के अंतिम शब्द दर-पेश, भी ध्यान खींचने में कामयाब रहे
    करे शिकायत चाँदनी वाले दोहे का अर्थ समझने की ज़रूरत महसूस हो रही है, कृपया बताने की कृपा करें
    ज़रा प्रयास कर के देखें, दूसरे दोहे की दूसरी पंक्ति यूँ ठीक रहेगी क्या - भू नीचे दीपावली, मना रहे हैं शेष

    बहुत ही उत्कृष्ट काव्य रचना है ये, बधाई स्वीकारें| आने वाले समय में लोग इन दोहों को सन्दर्भ रूप में प्रयोग करेंगे| जय

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  2. sanjiv verma 'salil'
    संध्या रजनी उषा को, छले चन्द्र गगनेश,
    करे चाँदनी शिकायत, है रक्तिम अरुणेश..

    चंद्रोदय के समय संध्या, चन्द्रक्रीडा के समय निशा तथा चंद्रास्त के समय को उषा कहा जाता है. दोहाकार ने चन्द्र को नभ का नरेश तथा उसकी प्रेयसियाँ तथा चाँदनी को चन्द्र-गृहिणी मानकर यह दोहा कहा है. गृहिणी चाँदनी की पीड़ा है कि चन्द्र उसे उपेक्षितकर संध्या, निशा और उषा को छल रहा है, यह जानकर अग्रज सूर्य (क्रोध से) लाल हो रहा है.

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  3. Shanno Aggarwal
    सलिल जी, बहुत खूब...अर्थ की व्याख्या के लिये बहुत धन्यबाद.

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