मंगलवार, 2 नवंबर 2010

एक कविता: मीत मेरे संजीव 'सलिल'

एक कविता:                                        

मीत मेरे

संजीव 'सलिल'
*
मीत मेरे!
राह में हों छाये
कितने भी अँधेरे,
उतार या कि चढ़ाव
सुख या दुःख
तुमको रहें घेरे.
सूर्य प्रखर प्रकाश दे
या घेर लें बादल घनेरे.
खिले शीतल ज्योत्सना या
अमावस का तिमिर घेरे.
मुस्कुराकर, करो स्वागत
द्वार पर जब-जो हो आगत
आस्था का दीप मन में
स्नेह-बाती ले जलाना.
बहुत पहले था सुना
अब फिर सुनाना
दिए से तूफ़ान का
लड़ हार जाना..

*****************

10 टिप्‍पणियां:

  1. अंतस के घावों पर मरहम रखती रचना सराहनीय है | किन्तु
    भावना के अंतर्जगत में कभी कभी ऐसे तूफ़ान उठा करते हैं
    जो सारा परिवेश ही छिन्न भिन्न कर दीपक बुझा कर ही चैन
    लेते हैं | भावुक अंतर्मन उस पीड़ा से कभी फिर उबर नहीं पाता |
    अस्तु,
    सादर
    कमल

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  2. आत्मीय लगभग २७ वर्ष पूर्व लिखी-छपी कुछ रचनाएँ हाथ आ गयी हैं. उन्हें यथा समय स्वजनों के साथ बांटने का मन है. २ युगों पश्चात् रचना का प्रासंगिक रहा आना संतोष देता है.
    हर जलता दीपक बुझता है
    इसका क्यों हम शोक करें ?
    बुझने तक वह तम हरता है
    इसीलिये णित नमन करें..

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  3. आज सुबह ही कहा कि कल लयात्मक अतुकन्त आधुनिक कविता प्रस्तुत करूँगा और मित्रों ने ये अभिलाषा आज ही पूरी कर दी| लयात्मक काव्य वाचन का आनंद ही अनूठा होता है| कल मेरी प्रस्तुति पर आप के आशीर्वाद की दरकार रहेगी|

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  4. वोहो , क्या बात है ,
    दिए से तूफ़ान का
    लड़ हार जाना..
    बहुत सुंदर प्रस्तुति, बार बार पढने को दिल चाहे |

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  5. दिए से तूफान का लड़ हर जाना, प्रख्यात कहावत को अपनी प्रस्तुत कविता में स्थान दे कर बहुत ही सुंदर कथ्य प्रस्तुत करने के लिए बधाई आचार्य जी| वह गाना याद आ गया "ये कहानी है दिए की और तूफान की"

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  6. आस्था का दीप मन में
    स्नेह-बाती ले जलाना.
    बहुत पहले था सुना
    अब फिर सुनाना
    दिए से तूफ़ान का
    लड़ हार जाना..

    वन्दे मातरम आदरणीय सलिल जी,
    मैं अगर आपकी कविता पर टिप्पणी करूं तो ये केवल छोटा मुंह बड़ी बात होगी, फिर भी अपने को रोक नही पा रहा हूँ, आपकी सभी कविताएँ बेहतरीन बेहतरीन अति सुंदर

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  7. एक और शानदार रचना आचार्य जी की कलम से।

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  8. बहुत पहले था सुना
    अब फिर सुनाना
    दिए से तूफ़ान का
    लड़ हार जाना..
    fir se umda prastuti

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  9. नवीन जी संभवतः यह रचना होते समय अवचेतन में यह गीत था.

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  10. प्रिय राकेश जी
    वन्दे मातरम.
    दो पीढ़ियों का मिलन ही परिवार को पूर्ण करता है. आप जैसे युवा मित्र टिप्पणी न करें तो लिखना निरुद्देश्य लगता है. हमारे पास जो भी ज्ञान है वह अगली पीढ़ी को मिले, समय के अनुसार बदले-सुधरे... आप हर रचना पर टिप्पणी दें... अच्छा लगेगा.

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