सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: आँख में संजीव 'सलिल

मुक्तिका:

आँख में

संजीव 'सलिल'
*
जलती, बुझती न, पलती अगन आँख में.
सह न पाता है मन क्यों तपन आँख में ??

राम का राज लाना है कहते सभी.
दीन की कोई देखे  मरन आँख में..

सूरमा हो बड़े, सारे जग से लड़े.
सह न पाए तनिक सी चुभन आँख में..

रूप ऊषा का निर्मल कमलवत खिला
मुग्ध सूरज हुआ ले किरन आँख में..

मौन कैसे रहें?, अनकहे भी कहें-
बस गये हैं नयन के नयन आँख में..

ढाई आखर की अँजुरी लिये दिल कहे
दिल को दिल में दो अशरन शरन आँख में..

ज्यों की त्यों रह न पायी, है चादर मलिन
छवि तुम्हारी है तारन-तरन आँख में..

कर्मवश बूँद बन, गिर, बहा, फिर उड़ा.
जा मिला फिर 'सलिल' ले लगन आँख में..

साँवरे-बाँवरे रह न अब दूर रख-
यह 'सलिल' ही रहे आचमन, आँख में..

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4 टिप्‍पणियां:

  1. aacharya ji namaskaar
    aapki ghazal padhi mujhe ye teen sher khas pasand aaye waise to poori
    ghazal hi achchi hai magar kahin kahin misre urdu ghazal ke hisaab se
    be behr ho gaye hai hain hindi ghazal ke hisaab se bilkul theek hai
    aadab
    jai hind
    aadil rasheed

    सूरमा हो बड़े, सारे जग से लड़े.
    सह न पाए तनिक सी चुभन आँख में..

    रूप ऊषा का निर्मल कमलवत खिला
    मुग्ध सूरज हुआ ले किरन आँख में..

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  2. बंधु!
    वन्दे मातरम.
    आपका धन्यवाद. कोई पंक्ति आपको पसंद आयी तो मेरा कवि कर्म सार्थक हो गया.
    मैं उर्दू नहीं जनता, न ही ग़ज़ल का कोई ज्ञान है. मैं मुक्तिका रचता हूँ, जिसकी हर द्विपदी अन्य से भिन्न भाव-भूमि पर अपने आपमें मुक्त होती है.
    पुनः आभार

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  3. कर्मवश बूँद बन, गिर, बहा, फिर उड़ा.
    जा मिला फिर 'सलिल' ले लगन आँख में..

    वाह वाह, सुंदर व्याख्या है सलिल जी| ये पंक्तियाँ मुक्तिका की सार्थकता में चार चाँद लगा रही हैं| बधाई स्वीकार करें|

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  4. ढाई आखर की अँजुरी लिये दिल कहे
    दिल को दिल में दो अशरन शरन आँख में..

    वाह वाह आचार्य जी, बेहतरीन कृति, आप की मुक्तिका का हम सबको इन्तजार रहता है, जबरदस्त प्रस्तुति पर बधाई ,

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