दोहा सलिला:
सुमन सुरभि सी श्वास
संजीव 'सलिल'
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कलियों सा निष्पाप मन, सुमन सुरभि सी श्वास.
वनमाली आशीष में, दे भँवरे सी आस..
रवि-वसुधा के ब्याह में, लाया नभ सौगात.
'सदा सुहागिन' हो वरो, अजर-अमर अहिवात..
सूर्य-धरा के अंक में, खिला चन्द्र सा पूत.
सुतवधु शुभ्रा गोद में, तारक-हार अकूत..
बेलन देवर 'बेल' को, दे बोली: 'ले बेल'.
झुँझला देवर ने कहा: 'भौजी! करो न खेल'..
'दूध-मोगरा' सजन चुप, हँसे देख तकरार.
'सीताफल' देकर कहे, 'मिल, खा, बाँटो प्यार'.
देख 'करेला' जेठ संग, 'नीबू' गुणी हकीम..
'मीठे से मधुमेह हो', बोली सासू 'नीम'.
ननद 'प्याज' से मिल गले, अश्रु भरे ले नैन.
भौजी 'गोभी' ने सुने, 'लाल मिर्च' से बैन..
नन्दोई 'आलू' कहे: 'मत हो व्यर्थ उदास.
तीखापन कम हो अगर, तनिक खिला दो घास..
ठुमक सुता 'चंपा' पुलक, गयी गले से झूम.
हुलसी 'तुलसी' जननि ने, लिया लाड़ से चूम..
दादी 'लौकी' से लिपट, 'बैगन' पौत्र निहाल.
'कद्दू' चच्चा हँस पड़े, ज्यों आया भूचाल..
हँसा 'पपीता' देखकर, जग-जीवन के रंग.'आगी-पानी को रखा, ठीक विधाता संग'..
'स्नेह-साधना से बने, स्वर्गोपम हर गेह'.'पीपल' बब्बा ने कहा, होकर उत्फुल्ल विदेह..
भोले भोले हैं नहीं, लीला करें अनूप.
नाच नचाते सभी को, क्या भिक्षुक क्या भूप?
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इतने सरल साधारण बिम्बों के माध्यम से आपने दुनियादारी का गहन अध्याय समझा दिया ....हर बार की तरह आज फिर मेरा मन आपकी लेखनी पर नत मस्तक हुआ जाता है .हर एक दोहा जीवन रूपी सागर के अनुभव मंथन से निकला खरा मोती है ....अनुपम !
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