शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: कुछ पड़े हैं ----संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

कुछ पड़े हैं

संजीव 'सलिल'
*
कुछ पड़े हैं, कुछ खड़े हैं.
ऐंठकर कुछ चुप अड़े हैं..

बोल दो, कुछ भी कहीं भी.
ज्यों की त्यों चिकने घड़े हैं..

चमक ऊपर से बहुत है.
किन्तु भीतर से सड़े हैं.. 

हाथ थामे, गले मिलते.
किन्तु मन से मन लड़े हैं..

ठूंठ को नीरस न बोलो.
फूल-फल लगकर झड़े हैं..

धरा के मालिक बने जो.
वह जमीनों में गड़े हैं..

मैल गर दिल में नहीं तो
प्रभु स्वयम बन नग जड़े हैं..

दिख रहे जो 'सलिल' लड़ते.
एक ही दल के धड़े हैं.

**************

4 टिप्‍पणियां:

  1. आ० आचार्य जी,
    सुन्दर व्यंग रचना | बधाई !
    विशेष पैना -

    " धरा के मालिक बने जो
    वह ज़मीनों में गड़े हैं "
    सादर
    कमल

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  2. आदरणीय आचार्य जी,
    सुन्दर रचना. लय मन को बहुत भायी. बधाई
    सादर
    श्रीप्रकाश शुक्ल

    जवाब देंहटाएं
  3. सलिल जी,

    निम्न विशेष लगे--


    कुछ पड़े हैं, कुछ खड़े हैं.

    ऐंठकर कुछ चुप अड़े हैं..


    बोल दो, कुछ भी कहीं भी.

    ज्यों की त्यों चिकने घड़े हैं..


    ठूंठ को नीरस न बोलो.

    फूल-फल लगकर झड़े हैं..


    --ख़लिश

    ================

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  4. खलिश से आशीष पाया
    भाग्य ने तमगे जड़े हैं..

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