शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

गीत: कौन रचनाकार है?.... संजीव 'सलिल'

गीत:

कौन रचनाकार है?....

संजीव 'सलिल'
*
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
कौन व्यापारी? बताओ-
क्या-कहाँ व्यापर है?.....
*
रच रहा वह सृष्टि सारी
बाग़ माली कली प्यारी.
भ्रमर ने मधुरस पिया नित-
नगद कितना?, क्या उधारी?
फूल चूमे शूल को, क्यों
तूल देता है ज़माना?
बन रही जो बात वह
बेबात क्यों-किसने बिगारी?
कौन सिंगारी-सिंगारक
कर रहा सिंगार है?
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
*
कौन है नट-नटवर नटी है?
कौन नट-नटराज है?
कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?
कहाँ नग-गिरिराज है?
कौन चाकर?, कौन मालिक?
कौन बन्दा? कौन खालिक?
कौन धरणीधर-कहाँ है?
कहाँ उसका ताज है?
करी बेगारी सभी ने 
हर बशर बेकार है.
कौन है रचना यहाँ पर
कौन रचनाकार है?....
*
कौन सच्चा?, कौन लबरा?
है कसाई कौन बकरा?
कौन नापे?, कहाँ नपना?
कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.
कौन ढांके?, कौन खोले?
राज सारे बिना बोले.
काज किसका?, लाज किसकी?
कौन हीरा?, कौन कचरा?
कौन संसारी सनातन
पूछता संसार है?
कौन है रचना यहाँ पर?
कौन रचनाकार है?
********************

8 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना सलिल जी, परन्तु भाव में विरोधाभास है- प्रथम एवं द्वितीय प्रस्तर को ही देखें.
    महेश चन्द्र द्विवेदी

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  2. प्रश्न तो लिक्खे सभी हैं
    एक ही उत्तर सभी का
    सब नियम उसने बनाए
    जो नियंता है कवी का
    कहता है हर बात तब
    जब है बनालेता वो उत्तर
    उसके प्रश्नों में छिपे रहते हैं
    सब उत्तर भी प्रियवर |

    Your's ,

    Achal Verma

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  3. यह द्वैत ही तो सृष्टि सृजन का आधार है. मायापति और माया तो दो विरोधी तत्व ही हैं न?
    हुइहै वहि जो राम रचि राखा, को करि तरक बारहवी सखा. और कर्म प्रधान बिस्व करि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा में तुलसी भी ऐसे ही विरोधाभास की अभिव्यक्ति करते हैं.

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  4. अचल होकर भी सचल वह.
    अटल होकर भी चपल वह.
    परिधि पर हम, केंद्र में वह-
    वही निर्जल है सजल वह.
    प्रश्न वह उत्तर वही है.
    सत्य घनचक्कर वही है.

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  5. आ० आचार्य जी ,
    सुन्दर दार्शनिक भावों से ओतप्रोत रचना के लिये साधुवाद !
    कमल

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  6. - aadilrasheed67@gmail.com
    अति सुन्दर वाह

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  7. सुंदर भाव हैं, सलिल जी.



    कौन है जिसने रचा संसार को कौन दुनिया को चलाता आ रहा

    क्या स्वयँ चलता रहा है ये जहाँ, क्या नहीं अंकुश किसी शय का रहा.


    --ख़लिश

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  8. मूल कविता का खलिश है, पीर रचनाकार है.
    हर्ष पूरक मात्र है, सुख-दुःख भरा संसार है..

    महत्तम जो ईश उसके शीश पर है चन्द्रमा-
    अमिय-विष का मेल विधि-हरि-हर त्रयी करतार है..

    सलिल की कलकल सुनो या पवन की सनसन सुनो
    भाव-रस से युक्त लेता बिम्ब नव आकार है..

    जिसे नफरत कह रहा जग, उसी को दिल से लगा
    बसा दिल में परख पाया वही सच्चा प्यार है..

    कौन खुद को खुदी के बाहर तलाशेगा 'सलिल'
    खोज मत बाहर बसा अन्दर ही रचनाकार है..

    ***
    भाव भाये आपको, रचना के शत आभार है.
    दिलो-जां से यह सलिल भी आप पर बलिहार है..

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