गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

नवगीत: समय पर अहसान अपना... ------संजीव 'सलिल'

नवगीत:
 
समय पर अहसान अपना...

संजीव 'सलिल'
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*

2 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय आचार्य सलिल जी,

    आपकी कलम की कुशलता का एक और उदाहरण है ये कविता.
    आभार आपका.
    कुछ प्रश्न मन में उभरे कविता पढ़ते हुए, खुल के पूछ रही हूँ जिससे कविता के प्राण तक पहुँच सकूँ. आप कृपया बुरा न मानियेगा :
    "अमिय हो या गरल- पीकर, जिए मर म्रियमाण. -------------- ये क्यों लिखा आपने? म्रियमाण का अर्थ मैं 'मृतप्राय' ले रही हूँ.
    *
    हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.-- सुन्दर!
    सुर-असुर केतन यहीं हैं.. ----------- यहाँ केतन का कौन सा अर्थ प्रयोग किया है आपने?
    कंत वह है, तंत हम हैं------------ ऐसा कैसे ?
    नियति की रेतन नहीं हैं. ---- 'रेतन' का कौन सा अर्थ प्रयोग किया है यहाँ ? और ऐसा कैसे?
    गह न गहते, रह न रहते------ ये कैसे संभव है ? योगी की तरह जीवन यापन ? ...या क्षणभंगुर जीवन का सन्देश है इन पंक्तियों में ?
    समय-सुत इंसान. ------------- बहुत सुन्दर!
    हम न होते तो समय का
    कौन करता गान?..... -------- बहुत सुन्दर!!
    *
    पीर हैं, बेपीर हैं हम, ---- वाह!
    हमीं चंचल-धीर हैं हम. ---- वाह!
    हम शिला-पग, तरें-तारें- -------- काश !
    द्रौपदी के चीर हैं हम.. ------ काश !
    समय दीपक की शिखा हम
    करें तम का पान.--- ये दो पंक्तियाँ बहुत बहुत सुन्दर!

    सादर शार्दुला

    जवाब देंहटाएं
  2. आत्मीय शार्दुला जी!
    वन्दे मातरम.
    आपने रचना में पैठकर उसे हृदयंगम किया... मैं कृतार्थ हुआ. आपकी सार्थक रचना को पढ़कर यह कलम से उतर आयी. मैं माध्यम बनकर धन्य हुआ.
    आप विदुषी हैं. आपने अन्य सामान्य पाठकों के लिये कुछ बिंदु स्पष्ट करने की दृष्टि मुझे कुछ कहने का अवसर देकर धन्य किया है... पुनः आभार..
    आशय स्पष्ट न कर पाना मेरे कवि कर्म की कमी है... आपको अनेक धन्यवाद...
    "अमिय हो या गरल- पीकर, जिए मर म्रियमाण. -------------- ये क्यों लिखा आपने? म्रियमाण का अर्थ मैं 'मृतप्राय' ले रही हूँ.
    आपने सही आशय लिया है. भाव यह है कि हमें प्रभु ने जो दिया अमृत या ज़हर... हम नश्वर मरणशील होते हुए भी उसे सादर ग्रहण कर जी गए.
    *
    हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.-- सुन्दर!
    सुर-असुर केतन यहीं हैं.. ----------- यहाँ केतन का कौन सा अर्थ प्रयोग किया है आपने? केतन = आवास. हम निकेतन.. नवीन जी का प्रसिद्ध गीत.
    कंत वह है, तंत हम हैं------------ ऐसा कैसे ? कंत अर्थात स्वामी वह (ईश्वर) है. हम तो उसकी ही रचना हैं... और सभी जीवों में सर्वश्रेष्ठ रचना अर्थात तंत या सार हैं. भक्त बिन भगवान कहाँ? मनुष्य बिन सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ ही नहीं होगा.
    नियति की रेतन नहीं हैं. ---- 'रेतन' का कौन सा अर्थ प्रयोग किया है यहाँ ? और ऐसा कैसे? किसी वस्तु को रेतने या रगड़ने से जो बारीक चूर्ण बनता है वही रेतन है. घिसने वाले औजार को रेती कहते है, क्रिया रेतना... मनुष्य नियति के हाथों का खिलौना नहीं है. वह नियंता का अंश अर्थात नियंता है. रेतन का अन्य अर्थ वीर्य है. इस अर्थ में लें तो मनुष्य नियति की इच्छानुसार सक्रिय या निष्क्रिय होने वाला नहीं है.
    गह न गहते, रह न रहते------ ये कैसे संभव है ? योगी की तरह जीवन यापन ? ...या क्षणभंगुर जीवन का सन्देश है इन पंक्तियों में ?
    दोनों... जो कुछ जोड़ते हैं वह जाते समय यहीं छोड़ जाते हैं... यहाँ रहते हुए भी नहीं रहते... भोगी हों तो बाँह में और कोई चाह में है और कोई... योगी हों टन तो दुनिया में रहते हुए भी दुनियाबनाने वाले में लीन.

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