एक और मुक्तिका:
माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई
संजीव 'सलिल'
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ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई.
अब न पहले सी यह ज़िंदगी रह गई..
मन ने रोका बहुत, तन ने टोका बहुत.
आस खो, आँख में पुरनमी रह गई..
दिल की धड़कन बढ़ी, दिल की धड़कन थमी.
दिल पे बिजली गिरी कि गिरी रह गई..
साँस जो थम गई तो थमी रह गई.
आँख जो मुंद गई तो मुंदी रह गई..
मौन वाणी हुई, मौन ही रह गई.
फिर कहर में कसर कौन सी रह गई?.
दीप पल में बुझे, शीश पल में झुके.
ज़िन्दगी बिन कहे अनकही कह गई..
माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई.
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई..
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वाह ! ख़ूबसूरत ग़ज़ल .....
जवाब देंहटाएं//माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई.
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई...//
आचार्य जी, दिल भर आया ये पंक्तियाँ पढ़कर ! स्वर्गीय माँ आज बहुत ही शिद्दत से याद आई !
सलिल जी पुनः आपने एक खुबसूरत शे'र कही है| एक बार फिर मन बिना कुछ पूछे वाह वाह कह गया|
जवाब देंहटाएंमाँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई.
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई..
बहुत खूब , क्या शब्दों की जादूगरी दिखाई है आपने, बहुत खूब , साथ ही एक ग़ज़ल मे ४ बार मतला और २ बार गिरह, कुछ अलग सी है |
bahot badhiya
जवाब देंहटाएं१०० फीसदी सफल है ,
जवाब देंहटाएंशुक्र है ऊपरवाले और ऊपर वाले के समीप जा पहुँची माँ का जिनके आशीर्वाद से बात कुछ बन गयी.
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