सोमवार, 19 जुलाई 2010

भजन : एकदन्त गजवदन विनायक ..... संजीव 'सलिल'

भजन :


एकदन्त गजवदन विनायक .....

संजीव 'सलिल'
 *











*
एकदन्त गजवदन विनायक, वन्दन बारम्बार.
तिमिर हरो प्रभु!, दो उजास शुभ, विनय करो स्वीकार..
*
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!
रिद्धि-सिद्धि का पूजनकर, जीवन सफल बनाओ रे!...
*
प्रभु गणपति हैं विघ्न-विनाशक,
बुद्धिप्रदाता शुभ फल दायक.
कंकर को शंकर कर देते-
वर देते जो जिसके लायक.
भक्ति-शक्ति वर, मुक्ति-युक्ति-पथ-पर पग धर तर जाओ रे!...
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
*
अशुभ-अमंगल तिमिर प्रहारक,
अजर, अमर, अक्षर-उद्धारक.
अचल, अटल, यश अमल-विमल दो-
हे कण-कण के सर्जक-तारक.
भक्ति-भाव से प्रभु-दर्शन कर, जीवन सफल बनाओ रे!
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
*
संयम-शांति-धैर्य के सागर,
गणनायक शुभ-सद्गुण आगर.
दिव्या-दृष्टि, मुद मग्न, गजवदन-
पूज रहे सुर, नर, मुनि, नागर.
सलिल-साधना सफल-सुफल दे, प्रभु से यही मनाओ रे.
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
******************

16 टिप्‍पणियां:

  1. सलिल जी,

    गणेश आरती अद्वितीय हैं.

    आप हिंदी की सच्ची सेव कर रहे हैं. हिंदी की सेवा को हिंदुस्तान देश की और संस्कृति की सेवा से अलग नहीं किया जा सकता. ईश्वर आपको शतायु करें और तत्पर्यन्त आपको सक्रिय बनाए रखें.

    --ख़लिश

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  2. आदरणीय सलिल जी ,
    बहुत ही मन मोहक वन्दना यदि स्वरबद्ध हो सके तो कालजयी बन जाय मैं आदरनीया मनोशी जी से विनय करूंगा कि समय निकाल कर इस स्तुति को अपनी ध्वनि प्रदान करें . मैने उनकी ध्वनि में सरस्वती वन्दना सुनी है जो कि अद्वितीय है आशा है वो निराश नहीं करेंगीं
    सादर
    श्रीप्रकाश शुक्ल

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  3. आचार्य जी,
    गणेश भजन और स्तुति बहुत सुन्दर लगे। एक शब्द "क्षिप्र-सुलिपिविद" का अर्थ कृपया समझा कर अनुग्रहित करें।
    सस्नेह
    सीताराम चंदावरकर

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  4. आदरणीय आचार्य जी,
    आपकी स्व. माँ जी द्वारा रचित गणपति-जन्म का सोहर,आपका लिखा गणपति-भजन एवं आरती, सभी गीत मनमोहक हैं। भक्ति-रस से परिपूर्ण इस आनन्दानुभूति के लिये
    आपका आभार । आपकी पूजनीया जननी को सादर नमन।
    - शकुन्तला बहादुर

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  5. "क्षिप्र-सुलिपिविद"= अत्यंत शीघ्रतापूर्वक अच्छी हस्त लिपि में लिख सकने में निपुण

    क्षिप्र = शीघ्रता से, क्षिप्रा = वेगमयी जलधारवाली नदी (विडम्बना कि अब इसमें पानी ही नहीं बचा)

    सुलिपि = अच्छी हस्त लिपि , विद = विशेषज्ञ , निपुण, कुशल, (शिक्षाविद, कलाविद, कोविद)

    सन्दर्भ: वर्णित है कि महाभारतकार महर्षि वेदव्यास के आग्रह करने पर श्री गणेश ने इस महा ग्रन्थ का लेखन कार्य इस शर्त के साथ ग्रहण किया था कि उनकी कलम अविराम चलती रहे तभी वे लिखेंगे, कलम रुकते ही लेखन कार्य त्याग देंगे

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  6. आपको यह रचना रुची तो मेरा कवि-कर्म सार्थक हो गया. मैं भी माननीया मानोशी जी से सविनय निवेदन करता हूँ कि वे इसे अपना स्वर प्रदान करने की कृपा करें.

    भक्ति गीत उसको रुचे, जिस पर ईश कृपालु.
    वही बहादुर है 'सलिल', जो हो दीनदयालु..

    कृपा आपकी 'सलिल' का, बढ़ा दिया उत्साह.
    जनक-जननि ने कलम दे, की है कृपा अथाह.

    साथ खलिश हो, पर खलिश मन में रहे न ईश.
    यही विनय है 'सलिल' की, सदय रहें जगदीश..

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  7. आदरणीय आचार्य जी ,
    प्रस्तुत पंक्तियों को एक बार फिर देखें :
    हास लुटाते, हारकर कृन्दन.
    हे! गजवदन विनायक वन्दन.....
    क्या आपने हरकर तो नहीं लिखना चाहा था , जो टंकण में हार हो गया है|
    और क्रन्दन शब्द ही ठीक है , जो कृ हो गया है.


    Achal Verma

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  8. जी हाँ 'हरकर क्रंदन' ही है. ऐसी त्रुटियों से कैसे बचा जाये? संभवतः मेरी असावधानी है.

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  9. इस सुन्दर रचना के लिए आपको पुनि-पुनि बधाई
    सन्तोष कुमार सिं

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  10. आप तो स्वयं आचार्य जी हैं ,आपके लिए मैं कुछ कह सकूँ संभव कहाँ !
    मैं बस पढ़ती ही रह जाती हूं!-
    -सादर ,
    प्रतिभा.

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  11. वंदन प्रतिभा का करे, 'सलिल' पखारे पैर.
    पग-रज-कण पाकर हुई, बेचारे की खैर..

    नहीं बहादुर और न श्री ही किंचित पास.
    अचल न पल भर रह सके, गुण न कोई भी खास..

    संगत पाकर खलिश की, मिल जाता आनंद.
    तुकबन्दी को स्नेहवश, कहते गुणिजन छंद..

    आभारी हूँ सभी का, दें इतना आशीष.
    विद्यार्थी ही रह सकूँ, गुरु हों आप मनीष..

    *

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  12. - pratapsingh1971@gmail.com की छवियां हमेशा प्रदर्शित करें आदरणीय आचार्य जी वन्दना अनुपम है. जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है. (आपको विस्मृत हो गया कि यह वन्दना पहले भी प्रेषित कर चुके हैं :) सादर प्रतापमंगलवार, जुलाई 20, 2010 7:48:00 pm

    - pratapsingh1971@gmail.com की छवियां हमेशा प्रदर्शित करें


    आदरणीय आचार्य जी

    वन्दना अनुपम है. जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है.
    (आपको विस्मृत हो गया कि यह वन्दना पहले भी प्रेषित कर चुके हैं :)

    सादर
    प्रताप

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  13. आदरणीय आचार्य जी,
    बहुत ही सुदीप्त सी वन्दना है "हे! गजवदन विनायक वन्दन".
    मन में रम सी गई. इसे अपनी पूजा की किताब में नोट कर लूंगी.

    एक बार इसे देखें कृपया :
    हास लुटाते, हारकर कृन्दन. ( हर कर क्रंदन?)


    इस वन्दना में कितनी सुन्दर बातें लिखीं है आपने, जो सत्य हैं पर कम ही सुनने में मिलती हैं. जैसे:
    क्षिप्र-सुलिपिविद, ...

    वादक, नर्तक, लेखक, गायक.

    पर्यावरण-प्रकृति के सर्जक,

    प्रतिभा-मेधा के उन्नायक-

    ये आपने किस आरक्षण के लिए लिखा है आचार्य जी ?
    तोड़ो प्रभु! आरक्षण-बंधन....

    पुन: आपका अमित आभार.

    सादर शार्दुला

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  14. प्रताप जी!
    दोहराव की भूल से बचने के लिये अब तक प्रकाशित हो चुकी रचनाओं की सूची बनानी होगी.
    शार्दुला जी!
    मेरा सौभाग्य कि आपने इसे पूजा की पुस्तक में लिखने लायक समझा. आरक्षण बंधन दो अर्थों में. प्रथम भव-बंधन, दूसरे भारत में व्याप्त जातीय आरक्षण. शेष जाकी रही भावना जैसी...

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  15. आचार्य जी
    इस दोहे में मात्राएं बराबर नहीं आ रहीं हैं ।

    नहीं बहादुर और न श्री ही किंचित पास.
    १ २ १ २११ २१ १, २ २ २ १ १ २ १ = २३

    अचल न पल भर रह सके, गुण न कोई भी खास..
    १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ २, १ १ १ २ २ २ २ १ = २५

    शरद तैलंग

    जवाब देंहटाएं
  16. शरद जी!
    शीघ्रता में छंद का विचार किये बिना मन के भाव टंकित किये थे. संयोगवश शेष दोहे हो गए. इं पंक्तियों की त्रुटि इंगित करने हेतु आभार. संशोधन कर निम्न रूप दे दिया है.

    नहीं बहादुर औ' नहीं, श्री ही किंचित पास.
    रह न सके पल भर अचल, गुण कोई भी खास..

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