रविवार, 18 जुलाई 2010

नवगीत / दोहा गीत : बरसो राम धडाके से... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत / दोहा गीत :

बरसो राम धडाके से...

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
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*
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
लोकतंत्र की जमीं पर,
लोभतंत्र के पैर.
अंगद जैसे जम गए-
अब कैसे हो खैर?.

 अपनेपन की आड़ ले,
भुना रहे हैं बैर.
देश पड़ोसी मगर बन-
कहें मछरिया तैर..

मारो इन्हें कड़ाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
कर विनाश मिल, कह रहे,
बेहद हुआ विकास.
तम की का आराधना-
उल्लू कहें उजास..

भाँग कुंए में घोलकर,
बुझा रहे हैं प्यास.
दाल दल रहे आम की-
छाती पर कुछ खास..

पिंड छुड़ाओ डाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
मगरमच्छ अफसर मुए,
व्यापारी घड़ियाल.
नेता गर्दभ रेंकते-
ओढ़ शेर की खाल.

देखो लंगड़े नाचते,
लूले देते ताल.
बहरे शीश हिला रहे-
.गूँगे करें सवाल..

चोरी होती नाके से,
बरसो राम धड़ाके से,
मरे न दुनिया फाके से....
*
-- सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

10 टिप्‍पणियां:

  1. आचार्य सलिल ,

    बचपन का यह प्यारा सा गीत आपने इतने सुन्दर ढंग से सुना दिया ,
    बहुत सी यादें ताजा हो गईं | हमेशा की तरह एक उत्तम काव्य |
    आपके इस गीत में आधुनिक समाज पर एक गहरा व्यंग भी है जो
    एक ख़ास वर्ग पर करारा चोट करता है , काश वो इसे पढ़ पाते |
    Your's ,

    Achal Verma

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  2. तम की का आराधना-
    उल्लू कहें उजास..
    शायद यह टंकन की वजह से, कर की जगह का हो गया , लगता है |
    Your's ,

    Achal Verma

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  3. जी, धन्यवाद.. मेरा की बोर्ड कुछ गड़बड़ कर रहा है, बदलना होगा. 'का' के स्थान पर 'कर' ही है.
    Acharya Sanjiv Sali

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  4. आ.सलिल जी,

    देश की समसामयिक व्यवस्था एवं दुःखद स्थिति पर करारी चोट करते हुए दोहे
    प्रभावित करते हैं। "देखन में छोटे लगें,घाव करें गंभीर।" आपका साधुवाद!!
    -शकुन्तला बहादुर

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  5. आ० आचार्य जी,
    मौसम तो धडाके से बरसने वाला आ गया पर
    लोभ-तंत्र पर बिजलियाँ कब गिरेंगी क्या जाने |
    भारत में बढ़ती महंगाई पर एक तुकबंदी मेरी भी -
    महंगाई ने भृकुटी तानी
    चढ़े भाव अब मरती नानी
    दाल हो गई पतली पानी
    सब्जी से तौबा की ठानी
    दूध के दाम सुने हैरानी
    चीनी चाँदी भाव बिकानी
    ख़ास ख़ास पर मेहरबानी
    आम हो रहे पानी पानी
    धनी कमायं धमाके से
    मरें गरीब कड़ाके से !
    कमल

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  6. आदरणीय आचार्य जी,
    बहुत ही नए ढंग का, लोक गीतों का पुट लिए एक बहुत सुन्दर और सार्थक नवगीत.
    ऐसा लगा जैसे कैलाश खेर साहब ये गायें तो क्या बात बने :)
    ये टंकण त्रुटि ठीक कर लें :
    तम की का आराधना-
    सादर शार्दुला

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  7. आदरणीय आचार्य जी

    अति सुन्दर !

    सादर
    प्रताप

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  8. बहुत अच्छा नवगीत / दोहा गीत है ।
    अलंकार भी , नये बिंब भी …
    दाल दल रहे आम की , छाती पर कुछ ख़ास !
    प्रशंसनीय !

    तम की कर' आराधना , उल्लू कहे उजास !
    बस , पढ़ते ही रहें …
    आपकी रचनाएं !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  9. स्वर्णकार राजेन्द्र की, पूरी हो प्रभु चाह.
    ऐसा लिखवाते रहो, करे हृदय से वाह..

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