बात बस इतनी सी थी...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
*
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
चाहते तुम कम नहीं थे, चाहते कम हम न थे.
चाहतें क्यों खो गईं?, सपने सुनहरे कम न थे..
बात बस इतनी सी थी, रिश्ता लगा उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
बाग़ में भँवरे-तितलियाँ, फूल-कलियाँ कम न थे.
पर नहीं आईं बहारें, सँग हमारे तुम न थे..
बात बस इतनी सी थी, चेहरा मिला मुरझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
दोष किस्मत का नहीं, हम ही न हम बन रह सके.
सुन सके कम दोष यह है, क्यों न खुलकर कह सके?.
बात बस इतनी सी थी, धागा मिला सुलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
**********************
----दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil
vah sanjeev ji, prayogdharmi geet. badhai.
जवाब देंहटाएंgirish pankaj
गिरीश भाई!
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
आपको गीत रुचा तो मेरा कवि कर्म सार्थक हो गया. नए प्रयोगों को समझने-सराहनेवाले विरले ही हैं.
Acharya Sanjiv Salil
बहुत खूब आचार्य संजीव जी ,
जवाब देंहटाएंआपका सलिल नाम कितना सार्थक है , यह कविता उसका एक उदाहरण है |
बधाइयां और धन्यबाद इस पहल के लिए | अब इससे मैं प्रेरणा ले सकता हूँ ||
Your's ,
Achal Verma
आत्मीय अचल जी!
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
आपको गीत रुचा तो मेरा कविकर्म सार्थक हो गया. अभिनव प्रयोगधर्मी रचनाओं को समझकर-सराहनेवाले सौभाग्य से ही मिलते हैं. अधिकांश पाठक या तो पढ़ते नहीं, जो पढ़ते हैं उनमें से अधिकांश समझ नहीं पाते, जो समझते हैं उनमें से अधिकांश टंकण नहीं जानते... और बिना समझे प्रशंसा करनेवालों की प्रशंसा के स्थान पर क्लेश दे जाती है. अस्तु... शब्द-सिपाही के नाते कलम चलते जाना ही अभीष्ट है.
सलिल जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत है.
रेफ़: बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*****************
असल में बात तो बस इतनी सी थी कि---
हम से आया न गया तुम से बुलाया ना गया
Film: Dekh Kabira Roya (1957)
Music: Madan Mohan
Lyrics: Rajinder Krishan
Singer (s): Talat
Starring: Ameeta, Anita Guha, Shubha Khote, Anoop Kumar, Daljeet
औडियो—
http://www.lg.com/in/cookie-fresh-plus.jsp?cmpid=India_GSM_cookiefresh_june_2010_raaga_jukebox_skinning
may also try at—
parulchaandpukhraajkaa.blogspot.com
हम से आया न गया तुम से बुलाया ना गया
फ़ासला प्यार में दोनों से मिटाया ना गया
वो घड़ी याद है जब तुम से मुलाक़ात हुई
एक इशारा हुआ दो हाथ बढ़े बात हुई
देखते देखते दिन ढल गया और रात हुई
वो समां आज तलक दिल से भुलाया ना गया
हम से आया न गया
क्या ख़बर थी के मिले हैं तो बिछड़ने के लिये
क़िस्मतें अपनी बनाईं हैं बिगड़ने के लिये
प्यार का बाग बसाया था उजड़ने के लिये
इस तरह उजड़ा के फिर हम से बसाया ना गया
हम से आया न गया
याद रह जाती है और वक़्त गुज़र जाता है
फूल खिलता है मगर खिल के बिखर जाता है
सब चले जाते हैं कब दर्दे जिगर जाता है
दाग़ जो तूने दिया दिल ने मिटाया ना गया
हम से आया न गया ...
--ख़लिश
=============================
भावपूर्ण सुन्दर गीत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंशकुन्तला बहादुर
2010/7/12 Dr.M.C. Gupta
आपसी समझ की समस्या ,
जवाब देंहटाएंमूल समस्या यही रही !
सुन्दर !
- प्रतिभा.
आपसी समझ की समस्या ,
जवाब देंहटाएंमूल समस्या यही रही !
सुन्दर !
- प्रतिभा.
आ० सलिल जी ,
जवाब देंहटाएंएक अटपटे विषय पर कविता भी अटपटी सी लग रही है |
उलझे हुए रिश्ते में सुलझा हुआ धागा मिलने का रहस्य मैं टटोलता रहा
पर मिला नहीं | मेरे अज्ञान को आपका स्पष्टीकरण मिले तो आभारी रहूँगा |
रचना सुन्दर है और प्रयोग नया | बधाई
कमल
आत्मीय कमल जी!
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
विषय का अटपटा होना समस्यापूर्ति को रोचक के साथ जटिल भी बनाता है. मेरा प्रयास एक युगल गीत के रूप में है,
*
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
यहाँ संकेत है कि आपसी समझ की समस्या है.
*
प्रथम अंतरा महिला पात्र, दूसरा पुरुष पात्र तथा तीसरा दोनों के संयुक्त बयान के रूप में है. गीत में इंगित ही हो सकते हैं पूरी तफसील नहीं.
पहला अंतरे में रिश्ता लगा उलझ मुझे में संकेत है कि कुछ अघात ऐसा घटा कि स्त्री को अपने और अपने साथी के बीच रिश्ते के सहजं रहकर उलझने की अनुभूति हुई, परिणाम अलगाव.
*
चाहते तुम कम नहीं थे, चाहते कम हम न थे.
चाहतें क्यों खो गईं?, सपने सुनहरे कम न थे..
बात बस इतनी सी थी, रिश्ता लगा उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
पुरुष पात्र की निष्ठां अखंड होने के कारण वह अन्य प्रलोभनों में भटकता नहीं. अपनी संगिनी की अनुपस्थिति में वह बहारें न होने की प्रतीति करता है. दोनों को एक दूसरे से यह शिकायत है कि उसे समझा नहीं गया.
*
चाहते तुम कम नहीं थे, चाहते कम हम न थे.
चाहतें क्यों खो गईं?, सपने सुनहरे कम न थे..
बात बस इतनी सी थी, रिश्ता लगा उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
तीसरे अंतरे में दोनों को अहसास होता है कि खुलकर सच न कह पाना ही समस्या की जड़ है. पहले दो अंतरों में दोनों एक-दूसरे को दोषी मानते हैं जबकि तीसरे अंतरे में उन्हें अपनी-अपनी गलती की अनुभूति होती है.स्थिति को स्पष्ट समझ पाने पर उन्हें अपने नाते का डोरी (धागा) सुलझी प्रतीत होती है.
दोष किस्मत का नहीं, हम ही न हम बन रह सके.
सुन सके कम दोष यह है, क्यों न खुलकर कह सके?.
बात बस इतनी सी थी, धागा मिला सुलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
दिया गया रेखा चित्र भी इंगित करता है कि रचना एक दम्पति के संबंधों को लेकर है.
*
confusion.JPG
*
रचना पर सर्व आदरणीय अचल जी, खलिश जी, शकुंतला जी तथा प्रतिभा जी की प्रतिक्रिया आ चुकी है. मैं अपनी अक्षमता के कारण विषय को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत न कर सका, इसके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ. शायद इस स्पष्टीकरण से कुछ समाधान हो. पश्चातवर्ती फ्कधिककुछ अन्य रचनाओं में इसी से मिलती-जुलती पृष्ठभूमि है. खलिश जी ने एक गीत संलग्न कर इसे पूरी तरह स्पष्ट कर दिया. अंतर यह है कि यहाँ आने-जाने की मनः स्थिति अंत में धागा सुलझा के रूप में इंगित है.
अस्तु...
आदरणीय आचार्य जी,
जवाब देंहटाएंइसे व्यक्तिगत आक्षेप न समझें तो कहना चाहूँगा कि इस रचना में बहुत कम बाप्रतें कहीं गयी हैं और शब्दों का अपव्यय अधिक हुआ है| संस्कृत वांगमय में विशेष रूप से संक्षिप्तता पर ध्यान दिया गया है| हम अपनी साहित्यिक धरोहर की खोज प्रायः वहीँ से करते है औीर काव्य रचना के सन्दर्भ में यह प्रसिद्ध उक्ति आपको याद ही होगी
अर्द्धमात्रा लाघवेनापि पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैय्याकरणाः
आधी मात्रा कम से यदि काम हो जाय तो वैय्याकरण उसे पुत्रोत्पति के समान आह्लादकारी मानते हैं इस दृष्टि से यह रचना मुझे शब्द अपव्यय दोष से ग्रस्त प्रतीत होती है।
मैं पुनः निवेदन कर दूँ कि मेरी टिप्पणी रचना के लिये है रचनाकार के लिये नहीं।
प्रयोग में भी कोई नवीनता नहीं दिखाई देती
सादर
अमित
आत्मीय अमित जी,
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
पूर्व में ही निवेदन किया गया है कि यह एक युगल गीत शैली की रचना है जैसी आम फिल्मों में होती है, जिसमें मुखड़े की पंक्ति हर अंतरे के बाद दोहराई जाती है. यह न तो संस्कृत की रचना है न उन मानदंडों पर रची गयी है. गीत में केवल संकेत हैं, जिनके विवरण साथ चलने वाले चलचित्र में होते हैं. यह स्वतंत्र रचना भी नहीं है. समस्यापूर्ति (यदि मानें तो अन्यथा मन चाहा नाम दे दें) की गंभीर रचनाओं से अलग हटकर इसे हल्का-फुल्का रखा गया है. प्रयोग और कथ्य में जिसने पूर्व में इससे मिलती-जुलती रचना अन्यत्र पढी होगी उसे कुछ नया नहीं मिलेगा, जिसने न पढी होगी उसे नयापन लगेगा. मैंने दी गयी पंक्ति पर रचना प्रस्तुत की. किसी को रुचे, किसी को न रुचे यह स्वाभाविक है. पाठक को रचना के विषय में बेलाग-लपेट अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है. अभी तक जितने मत आये हैं सब अलग-अलग हैं. इतने विद्वान् रचनाकार रचना की ओर आकृष्ट होकर पढ़ें और टिप्पणी करें मुझ विद्यार्थी के लिये इतना पुरस्कार पर्याप्त है. प्रसन्नता है कि आपने स्पष्ट से अपना मत रखा.मैंने न तो नवीनता का दावा किया, न श्रेष्ठता का.
सादर
सलिल
बहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएंUdan Tashtari
आचार्यश्री
जवाब देंहटाएंप्रणाम !
रोचक युगल गान है !
बहुत बढ़िया !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
Rajendra Swarnka