मंगलवार, 27 जुलाई 2010

दोहां सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहां सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
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*
गृह मंदिर में, कर सकें, प्रभु को प्रति पल याद.
सुख-समृद्धि-यश पा अमित, सदा रहें आबाद.

कल का कल पर छूटता, आज न होता काज.
अभी करे जो हो वही, यही काज का राज..

बिन सोचे लिख डालिए, जो मन हो तत्काल.
देव कलम के स्वयं ही, लेते कथ्य सम्हाल..

कौन लिखाना चाहता, जान सका है कौन?
कौन लिख रहा जानकर, 'सलिल' हो रहा मौन..

मल में रह निर्मल रहे, शतदल कमल न भूल.
नित मल-मलकर नहाती, स्वच्छ न होती धूल..

हँसी कुमुदिनी या धरा पर उतरा रजनीश.
सरवर में पंकज खिला, या विहँसे पृथ्वीश..


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

10 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय सलिलजी

    कौन लिखाना चाहता, जान सका है कौन?
    कौन लिख रहा जानकर, 'सलिल' हो रहा मौन..



    सुन्दर और सत्य भाव--



    जो गीतों का सृजन कर रहा वो मैं नहीं और है कोई

    मैने तो बस कलम हाथ में अपने लेकर शब्द लिखे हैं.



    सादर



    राकेश

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  2. 'बिन सोचे लिख डालिए, जो मन हो तत्काल.
    देव कलम के स्वयं ही, लेते कथ्य सम्हाल..'
    बिना सोचे लिखने की सलाह ? नहीं-नहीं ,ऐसा गज़ब मत कीजिए .
    झेलना कभी-कभी और भी कठिन हो सकता है .
    - प्रतिभा

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  3. जो बिन सोचे लिख रहे करते सिर में दर्द
    आप पढ़ें,सिर को धुनें भर लें आहें सर्द.

    सादर क्षमायाचना के साथ

    राकेश

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  4. ये दोनों सोच और शोध का विषय हैं आचार्य जी:

    बिन सोचे लिख डालिए, जो मन हो तत्काल.
    देव कलम के स्वयं ही, लेते कथ्य सम्हाल.. --- ??

    कौन लिखाना चाहता, जान सका है कौन?
    कौन लिख रहा जानकर, 'सलिल' हो रहा मौन..

    ...सादर शार्दुला

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  5. प्रतिभा जी
    ये पैरोडी कैसी रहेगी :
    बिना बिचारे जो लिखे, सो पीछे पछताय
    काम बिगारै आपनों, जग में होत हंसाय ।
    शरद तैलंग

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  6. शरद जी ,
    अधूरी क्यों छोड़ दी ?अब पूरी तो करनी ही पड़ेगी, आपका काम मैं निबटाये देती हूँ -
    उन दो पंक्तियों के आगे --
    जग में होत हँसाय.किन्तु बेसरमी लादी ,
    मूरखता की पीट रहे हैं खुदै मुनादी .
    कहै सरद कविराय सभै ऐसन सों हारे ,
    नत शिर वंदन करो लिखें जो बिना विचारे !,

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  7. वाह! वाह!! प्रतिभा जी। बहुत ख़ूब !!!

    शकुन्तला बहादुर

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  8. कल का कल पर छूटता------ दोहा सत्य है और सार्थक भी।

    बिन सोचे लिख डालिये----- से मेरी सहमति नहीं है।
    मैं प्रतिभा जी से सहमत हूँ।

    शकुन्तला बहादुर

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  9. आ- आचार्य जी ,
    बहुत सुन्दर दोहे ,बधाई!
    यह दोहा बहुत पसंद आया -

    कौन लिखाना चाहता जान सका है कौन
    कौन लिख रहा जान कर सलिल हो रहा मौन
    कमल

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  10. आशुकवि कविता तत्क्षण ही रचते हैं, सोचने में समय नहीं लगाते. स्व. निर्भय हाथरसी ऐसे ही दिग्गज कवि थे. उनके अनुसार कविता दो तरह की होती है एक दिल से उपजी, दूसरी दिमाग से निकली. दिल से उपजी कविता सरल और भाव-प्रधान होती है, सीधे दिल तक पहुँचती है. दिमाग से निकली कविता जटिल और तर्क-प्रधान होती है जो ऊब और उलझन पैदा करती है. आज की अधिकांश कवितायेँ दिमाग की कवितायेँ हैं और जब कभी दिल की कविता सामने आती है, मन झूम जाता है.

    बिन सोचे लिख डालिए, जो मन हो तत्काल.
    देव कलम के स्वयं ही, लेते कथ्य सम्हाल..

    जब आप कर्ता नहीं होते तब आप कर्तृत्व भाव से मुक्त होते हैं और शब्द ब्रम्ह के उपकरण के रूप में दिव्य प्रेरणा की अभिव्यक्ति के साधन मात्र बनकर धन्य हो जाते हैं. जब कर्ता भाव प्रधान होता है तब परम सत्ता गौड़ प्रतीत होती है. सोचने के लिये 'मैं' अर्थात 'अहम्' होना अपरिहार्य है, परम शक्ति की वाणी प्रागट्य का माध्यम बनने के लिये 'मैं'
    से मुक्ति चाहिए. जब मैं ही न होगा तो सोचेगा कौन?

    कौन लिखाना चाहता जान सका है कौन
    कौन लिख रहा जान कर सलिल हो रहा मौन

    कलम के देव तो निराकार हैं, उनका चित्र ही गुप्त है चूंकि चित्र बिना आकार के नहीं होता. जब 'निराकार' कथ्य की सम्हाल करता हो तो जो विचार या प्रेरणा दे उसे प्रगट कर 'साकार' धन्य होता है. साकार तो निराकार की इच्छा से निर्मित 'पानी केरा बुलबुला' मात्र है, उसकी सोच निराकार की प्रेरणा पर कितनी वरीयता पाये आप ही तय करें.

    मेरा अपना अनुभव यही है कि कब कलम से क्या उतरेगा कलमकार को भी ज्ञात नहीं होता. बहुधा लिखने कुछ अन्य बैठता हूँ लिखकर कुछ अन्य उठ पाता हूँ. संस्कृत स्तोत्रों के अनुवाद का अनुभव यही हुआ कि जिन शब्दों के अर्थ भी मैं नहीं जानता था वे भी उसने अवचेतन से प्रगट करा लिये.

    आप महानुभावों को 'बिन सोचे' पर आपत्ति है, कुण्डली सम्राट गिरिधर ठाकुर ने 'बिना बिचारे जो करे सो पीछे पछताय' में बिना विचारे कार्य करने को गलत माना है. क्या सोचने और विचारने के अंतर को भूल जाना चाहिए?

    बिन सोचे चलती कलम, जब भी अपने आप.
    तब ही अक्षर ब्रम्ह की सुन पड़ती पद-चाप..
    सुन पड़ती पद-चाप, चक्षु मन के खुल जाते.
    अवचेतन को सृजन पंथ प्रभु ही दिखलाते..
    सोच-सोच करते तुकबंदी, कवि महान जी.
    कविता सुन सिर पीटें श्रोता परेशान जी.

    बहुत विचारे जो 'सलिल', वह निश्चय पछताय
    .धरे हाथ पर हाथ निज, अवसर व्यर्थ गंवाय,
    अवसर व्यर्थ गंवाय, दोष दे औरों को वह.
    कविता हो रसहीन, न पाठक उसे सकें सह.
    कर वैचारिक वमन टाँग कविता की तोड़े.
    पाठक नोचे बाल देख कविता के घोड़े..

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