सोमवार, 5 जुलाई 2010

गीत: मन से मन के तार जोड़ती..... संजीव 'सलिल'

गीत:

मन से मन के तार जोड़ती.....

संजीव 'सलिल'
*














*
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..

होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है. 
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.

हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?

करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
**********************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

6 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय आचार्य जी

    अति सुन्दर ! एक सार्थक कविता !


    हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
    विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
    विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
    चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?

    बहुत ही सारगर्भित !

    सादर
    प्रताप

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  2. एक एक अक्षर सोचने को वध्य करता हुआ
    आचार्य जी को नमन और बधाई ||

    Your's ,

    Achal Verma

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  3. सलिल जी,
    बड़ा ही मधुर एवं अर्थपूर्ण गीत है. बधाई.
    मुझे दो विन्दु खटके-
    १. प्रथम पंक्ति के पश्चात् पूर्णविराम लाग जाना- संभवतः इसे बिना विराम के छोड़ना चाहें और द्वितीय पंक्ति में पाया के पश्चात् dash लगा दें.
    २. शब्द-शब्द के पश्चात् 'को'- इसके बजाय जोड़ के पश्चात् 'वह' अधिक गेय लगता है.
    महेश चन्द्र द्विवेदी

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  4. आ० आचार्य जी ,
    अति मुग्धकारी रचना आपकी , साधुवाद |
    इसकी प्रशंसा में शब्द समर्थ नहीं | निःशब्द हूँ |
    कमल

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  5. आप शब्दों के धनी हैं, धुनों के भी धनी हैं , माँ सरस्वती के वरद पुत्रों में से एक हैं |
    हम धन्य हैं की आप का सत्संग मिल रहा है , और जब तक मिले , अमृत है |
    " विष भी विष्णु में होता है , अनु अनु में विष भी अमृत भी |
    हर जीवन में सुख भी , दुःख भी , वैर करे जग , या हित भी |
    सबकी सोंच अलग होती है , सब रो लेते , गालेते |
    पर कुछ ही इनमें ऐसे हैं , कविता मधुर बना लेते ||
    Your's ,
    Achal Verma

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