सोमवार, 7 जून 2010

बाल कविता: गुड्डो-दादी संजीव 'सलिल'

बाल कविता :
तुहिना-दादी
संजीव 'सलिल'
*

तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.

दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछतायेंगे.'

तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाये वह
वह गाये तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
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2 टिप्‍पणियां:

  1. नन्हे बिटवा संजीव भाई
    चिरंजीव भवः
    आपकी की कविता गुड्डो दादी पढ़ी हंसी बंद ही नहीं हुई
    जी भाई एक प्रश्नं आपके चित्रों में महा कवित्री महादेवी वर्मा जी का चित्र तो आप क्या आप उनके सुपुत्र
    क्षमा करना आपस...

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  2. महीयसी महादेवी जी मेरी बुआ थीं. पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे उनके स्नेह-आशीष का पात्र बना गया. उनके साथ बिताये पल मेरे जीवन की अनमोल निधि है.

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