शनिवार, 15 मई 2010

तितलियाँ : कुछ अश'आर संजीव 'सलिल'

 तितलियाँ : कुछ अश'आर

संजीव 'सलिल'

तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?

कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियाँ ही बैग की रौनक बनी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

7 टिप्‍पणियां:

  1. M VERMA :

    फूल बनकर महको --
    महक रहे हैं इत्र बनाने वाले आ गये
    बहुत सुन्दर अश'आर
    वाह

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  2. - बहुत खूब आचार्य जी।

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  3. रावेंद्रकुमार रविरविवार, मई 16, 2010 3:58:00 pm

    रावेंद्रकुमार रवि :

    बहुत बढ़िया!
    --
    बौराए हैं बाज फिरंगी!
    हँसी का टुकड़ा छीनने को,
    लेकिन फिर भी इंद्रधनुष के सात रंग मुस्काए!

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  4. बहुत अच्छे मैने कहा बहुत ही अच्छे

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  5. तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
    फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..

    प्रेरणादायक पक्तियां, खुबसूरत अश'आर , बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है आचार्य जी ,

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  6. आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
    उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
    वाह सलिल जी, प्रतिको का उत्तम प्रयोग कर के आप ने कमाल की रचना की है| और उपरोक्त पंक्तियों में तो यमक अलंकार का अच्छा उदहारण भी प्रस्तुत किया है|
    भूरि भूरि प्रसंशा के काबिल है yah रचना|

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