शुक्रवार, 14 मई 2010

अंतिम गीत: लिए हाथ में हाथ चलेंगे.... ---संजीव 'सलिल'

अंतिम गीत

संजीव 'सलिल'

*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'.
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है--
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

6 टिप्‍पणियां:

  1. वन्दना :

    वन्दना ने आपकी पोस्ट " अंतिम गीत: लिए हाथ में हाथ चलेंगे.... ---सं... " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    behad marmik varnan.

    जवाब देंहटाएं
  2. महेन्द्र मिश्रशुक्रवार, मई 14, 2010 8:25:00 pm

    महेन्द्र मिश्र :

    भावप्रधान गीत ...आभार

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  3. सुलभ § सतरंगी:

    yah antim geet anek bhaav samete hai hain.

    जवाब देंहटाएं
  4. मदन मोहन शर्मा 'अरविन्द'शुक्रवार, मई 14, 2010 8:26:00 pm

    Madan Mohan Sharma ✆

    सलिल जी,
    ऐसे गीत कैसे पढूं. ऑंखें धुंधला जाती हैं.

    जवाब देंहटाएं
  5. आदरणीय राकेश जी, आनन्द कृष्ण जी, मदन मोहन जी, प्रताप जी, श्रीप्रकाश शुक्ल जी, शार्दुला जी, द्विवेदी जी, अचल वर्मा जी, अमित जी, व सुरेन्दर जी। आप सभी ने इस गीत को पसंद किया इसके लिये हृदय से धन्यवाद।

    राकेश जी- आपको यह गीत मेंने इस मंच पर पोस्ट करने से पहले दिखाई थी, आपके सुझावों से ही यह गीत यह रूप पा सका। आपका विशेष धन्यवाद।

    शार्दुला जी- आपके सुझावों पर ध्यान दूँगी।

    आचार्य सलिल जी- आपका गीत, जो इस गीत के उत्तर में बन पड़ा, बहुत सुंदर है। आपकी प्रतिभा को नमन।

    अचल जी- आपका धन्यवाद। आपने जो मुक्तक लिखा, अच्छा है। आपके बेटी की उम्र की हूँ, यह स्नेह पाकर अच्छा लगा।

    सभी को इस प्रोत्साहन के लिये फिर एक बार धन्यवाद।

    सादर
    मानोशी


    From: Manoshi Chatterjee
    Subject: [ekavita] विरह गीत - दीप बना कर याद तुम्हारी
    To: "ekavita"
    Date: Friday, 14 May, 2010, 3:32 AM

    दीप बना कर याद तुम्हारी, प्रिय, मैं लौ बन कर जलती हूँ

    प्रेम-थाल में प्राण सजा कर लो तुमको अर्पण करती हूँ।

    अकस्मात ही जीवन मरुथल में पानी की धार बने तुम,

    पतझड़ की ऋतु में जैसे फिर जीवन का आधार बने तुम,

    दो दिन की इस अमृत वर्षा में भीगे क्षण हृदय बाँध कर,

    आँसू से सींचा जैसे अब बन कर इक सपना पलती हूँ।

    दीप बना कर...
    *
    मेरे माथे पर जो तारा अधरों से तुमने आँका था,

    पाकर के वह स्पर्श मृदुल यह गात रक्त्मय निखर उठा था,

    उन चिह्नों को अंजुरि में भर पीछे डाल अतीत अंक में,

    दे दो ये अनुमति अब प्रियतम, अगले जीवन फिर मिलती हूँ।

    दीप बना कर...
    *
    तुम रख लेना मेरी स्मृति को अपने मन के इक कोने में,

    जैसे इक छोटा सा तारा दूर चमकता नील गगन में,

    दग्ध ह्रदय में धधक रहे आहत पल के दंशों को अपने ,

    आहुति के आँसू से धो कर आंगन लो अब मैं चलती हूँ।

    दीप बना कर...
    * --मानोशी

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  6. यह 'अंतिम गीत" शीर्षक रचना मानोशी जी के उक्त गीत को पढ़कर उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी गयी. मानोशी जी का गीत उनकी स्वीकृति के बिना प्रकाशित करना उचित न लगा अतः, यह गीत उन्हें भेजते हुए दिव्यनर्मदा व अन्यत्र प्रकाशित किया गया. इसकी रचना हेतु भाव भूमि मानोशी जी के उक्त गीत को पढ़कर ही बनी. उनका विशेष आभार.

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