मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ..
खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ..
प्यार की, मनुहार की, इकरार की, अभिसार की
मशालें ले फूँक दो दहशत, कहीं फिर बुझ न जाएँ..
ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना 'सलिल' फिर बुझ न जाएँ...
सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ..
....... - it's beautiful yaar.............
जवाब देंहटाएंwat is that wroting?
जवाब देंहटाएंsahi hai ji ..shaandar ,,,,aur jaandar ....
जवाब देंहटाएंi saw again
जवाब देंहटाएंKloé Jackson!
जवाब देंहटाएंbrother it is HINDI, national language of INDIA.
प्रशंसनीय ।
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