बुधवार, 21 अप्रैल 2010

दोहे का रंग, अंगिका के संग: संजीव 'सलिल'

(अंगिका बिहार के अंग जनपद की भाषा, हिन्दी का एक लोक भाषिक रूप)

काल बुलैले केकरs, होतै कौन हलाल?
मौन अराधे दैव कै, ऐतै प्रातः काल..

मौज मनैतै रात-दिन, होलै की कंगाल.
साथ न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?.

एक-एक के खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नीन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..

कौन हमर रक्षा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सभ्भई हवै दलाल..

धूल झोंक दें आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित के नाटक रचैं, नेता निगलें माल..

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14 टिप्‍पणियां:

  1. priy sanjeev ji
    saprem namaskar.
    aapke dohe padhkar bahut khushi hui bahut sundar aur bhavpurn mai bhi aajkal bhojpuri me geet likhne ki koshish kar rahi hun aap kaha se hain aapse bat karke bahut achha lagega
    kusum

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  2. आत्मीय!
    वन्दे मातरम.
    आपने दोहे सराह कर उत्साह बढाया, आभारी हूँ. मैं जबलपुर, मध्यप्रदेश निवासी हूँ.पुरखे ४ पीढी पूर्व मैनपुरी उत्तर प्रदेश से यहाँ आए थे. कृपया, http://divyanarmada.blogspot.com देखिये. यहाँ भोजपुरी, निमाड़ी, बुन्देली आदि की रचनाएँ भी हैं. आप की रचनाओं का भी स्वागत है

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  3. आदरणीय सलिलजी,

    सादर वन्दे

    आपके दोहे सुन्दर हैं. भाषा से अपरिचित हूँ इसलिये निम्न पंक्ति समझ पाने में असमर्थ रहा. कय़्पया मार्गदर्शन करें

    केकरा से बिनती करभ, सभ्भई हवै दलाल..

    सादर

    राकेश

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  4. कौन हमर रक्षा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
    केकरा से बिनती करभ, सभ्भई हवै दलाल..

    सलिल अर्थात आम आदमी के मन में यह मलाल है की उसकी रक्षा कौन करेगा याने कोई नहीं करेगा. आँ जान किस्से रक्षा की विनती करने जाये यहाँ तो सभी अपने स्वार्थों के दलाल हैं.

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  5. आ.आचार्य जी ,
    दोहे सुन्दर हैं .लोक-भाषा और लोक-जीवन से जुड़ाव बहुत आकर्षक बन पड़ा है .
    साधुवाद !
    -सादर,
    प्रतिभा.

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  6. प्रतिभा जी!
    नमन.
    लोकभाषा के माधुर्य का रसास्वादन मन को तृप्त कर देता है. हिन्दी के ये विविध रूप ही तो हिन्दी की आत्मा हैं. जनवाणी को जगवाणी बनाना तभी संभव होगा जब हम हिन्दी की शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति क्षमता को दोहन कर सकेंगे. आप सबकी शुभ कामनाएँ हि इस हेतु प्रेरित करती हैं.

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  7. आदरणीय आचार्य सलिल जी ,
    मैं निश्चय पूर्वक तो नहीं कह सकता पर लगता है ये भाषा शायद आजकल के झारखण्ड की है, पढ़ने पर ऐसा ही लग रहा है. जो भी हो, है ये मेरे भोजपुरी के जैसा ही , इसलिए मजा वैसा ही आ रहा है इसे पढ़ कर. आपका धन्यबाद की एक नई भाषा से आपने परिचय कराया . ७६ साल का हूँ पर कितनी नई बातें सामने आ रही है , आश्चर्य होता है. कितना कम जानता है व्यक्ति और कितना अहंकार करता रहता है . इसीलिए शायद कहते है, की सीखने का कोई अंत नहीं.
    आपको बधाई |

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  8. आत्मीय!
    वन्दे मातरम.
    विस्मित तो मैं भी हूँ नित्य ही नए-नए शब्द और भाषा सीखता हूँ फिर भी लगभग कुछ नहीं जानता. हिन्दी के इतने रूप हैं जितने आसमान में तारे. दुःख यह है की हर लोकभाषा भाषी खुद कको हिन्दी से अलग और हिन्दी को गैर मान रहा है. जनगणना में मातृभाषा के रूप में लोकभाषा लिखने की दुष्प्रवृत्ति का फल हिन्दीभाषियों की कम तथा अंग्रेजीभाषियों की अधिक संख्या के रूप में आया तो भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी करने की माँग होगी. सभी इसी अंग्रेजी तथा मुसलमान उर्दू को मातृभाषा लिखते हैं. मेरा प्रयास विविध लोकभाषाओं में लिखकर सबको एक रूप में जोड़ने का है. आप भी सहयोगी हों.

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  9. संजीव जी
    सुन्दर दोहो के लिए बधाई । इस दोहे की दूसरी पंक्ति , मात्राओं की गिनती करने में मुझे कुछ ठीक नहीं लग रही है हो सकता है कुछ शब्द अलग हों :
    कौन हमर रक्षा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
    केकरा से बिनती करभ, सभ्भई हवै दलाल..
    के क रा से बि न ती क र भ
    २ १ २ २ १ १ २ १ १ १ = १४
    स म भ ई ह वै द ला ल
    १ १ १ २ १ २ १ २ १ = १२

    शरद तैलंग

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  10. आत्मीय!
    वन्दे मातरम..
    लोकभाषाओँ में कई जगह लघु का दीर्घ तथा दीर्घ का लघु उच्चारण होता है. इसी कारण लोकभाषा में लिखनेवाले खड़ी हिन्दी में लिखते समय शब्दों तथा करता-क्रिया की त्रुटि कर जाते हैं. मैं मूलतः हिन्दीभाषी हूँ. हिन्दी की उपभाषाओँ या लोकभाषाओँ में लिखने का प्रयास भाषिक एकता को सबल करने और अपरिचितों को परिचित कराने के उद्देश्य से है. एक नौसिखिया त्रुटि कर सकता है. आपने खड़ी हिन्दी के अनुसार बिलकुल सही गणना की है. 'केकरा' में 'के' का उच्चारण लघु होता है किन्तु लिखा नहीं जा सकता. दिल्ली के स्वामी श्यामानंद जी ने इस हेतु अक्षर के नीचे रेखा खींची है, पर वह प्रचलन में नहीं है. 'सभ्भई' वास्तव में 'स' के बाद आधे 'भ' के साथ पूरा 'भ' 'ऐ' की मात्रा सहित है. किन्तु वह मैं टंकित नहीं कर सका. आगे सतर्क रहूँगा की ऐसी त्रुटियाँ भी बच सकें.
    आचार्य संजीव 'सलिल'

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  11. वाह आचार्य जी . मुझे तो पता भी नहीं था कि 'अंग' नामक कोई जनपद बिहार में आज भी है- ऐतिहासिक नाम है ना.
    महेश चन्द्र द्विवेदी

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  12. महाभारतकार के अनुसार अंग देश का राजा कर्ण था. वह एक बड़ा क्षेत्र होगा. अब उस क्षेत्र में कई जिले बन गए होंगे फिर भी मूल नाम लोग भूले नहीं हैं. वहाँ बोली जाने वाली भाषा उस नाम को जिन्दा रखे है. http://divyanarmada.blogspot.कॉम को देखिये वहाँ भोजपुरी, बुन्देली, निमाड़ी की रचनाएँ भी मिलेंगी. मुझे ये सब हिन्दी के ही रूप लगते हैं.

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  13. आदरणीय आचार्य जी,
    "ई-कविता पे पहली बार..." पढ़ के मुस्कान खेल गई होठों पे :) और फ़िर जो पढ़ा वो वाकई मन प्रसन्न कर गया :) अंगिका बहुत कुछ मैथिली जैसी ही लगी. दोहे गाने में खुशी मिली. आभार !
    सादर शार्दुला

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  14. अपने दुनु गोटय के बात सँ हम समत छी शार्दूला जी आ सलिल जी। नीक लागल पढ़िकय।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

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