रविवार, 25 अप्रैल 2010

माँ को दोहांजलि: संजीव 'सलिल

माँ को दोहांजलि:

संजीव  'सलिल'

माँ गौ भाषा मातृभू, प्रकृति का आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार..

भूल मार तज जननि को, मनुज कर रहा पाप.
शाप बना जेवन 'सलिल', दोषी है सुत आप..

दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान.
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान..

रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..

माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक.
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?

************************************

दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

10 टिप्‍पणियां:

  1. आ० सलिल जी,
    सभी दोहे मन मुग्ध करने वाले हैं | साधुवाद ,
    कमल

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  2. रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
    है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..

    कितना सटीक है आपका यह उदगार, चिरंतन सत्य, जो सबको सदा ही याद रहता है.

    "बिन माँके जीवन कहाँ, बिन मांगे मिल जाय.
    माता ने सिखला दिया , तब जग करे सहाय .

    माँ की ममता दिव्य है, माँ का प्यार निस्वार्थ.
    शब्द जहां ये जुड़ गया , वह पूजा परमार्थ.
    सलिल जी, आपको सादर अभिवादन |

    Achal Verma

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  3. आदरणीय कमल भाई,

    विलम्ब से लिखने के लिये क्षमा करें। बहुत भावपूर्ण, सुन्दर, सटीक एवं तर्क की कसौटी पर खरी उतरने वाली रचना की हर पंक्ति में मन डूब सा गया।
    आपकी कविता "निदाघ" ने भी मुझे अत्यन्त प्रभावित किया था।
    ग्रीष्म का सांगोपांग चित्र सा आँखों के समक्ष आ गया था। लिखने से रह गय़ी थी। कृपया इसे अन्यथा न लें।

    राकेश जी की समस्या-पूर्ति की प्रतिक्रिया में उद्धृत आपकी पंक्तियाँ
    मन को प्रफुल्लित कर गयीं और आशान्वित भी।
    आनन्द के इन क्षणों के लिये आभारी हूँ।

    सादर,
    शकुन्तला बहादुर

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  4. आ. अचल जी,

    आपकी विवेकपूर्ण पंक्तियाँ आशावादी हैं और सौहार्दपूर्ण भी।

    इस भावपूर्ण सुन्दर रचना के लिये बधाई !!

    शकुन्तला बहादुर

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  5. आदरणीया शार्दुला जी,
    लगभग इसी तरह के मनोभाव थे मेरे मन भी इसीलिए इस पंक्ति के समर्थन में कुछ नहीं लिख पाया लेकिन आपने सुगम तरीका निकाला| साधुवाद इस रचना के लिए|
    सादर
    अमित

    जवाब देंहटाएं
  6. आदरणीय अमर जी, कमल जी, श्रीप्रकाश जी
    आदरणीया शार्दुला दीदी

    आप सबने मेरे प्रयास की सराहना की...अंतरिम आभार.
    दीदी, आपने त्रुटियों को रेखांकित किया...बहुत बहुत धन्यवाद.

    सादर
    प्रताप

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  7. प्रिय शार्दुला जी,
    आपकी सुन्दर सटीक रचना के विषय में लिखी आधी मेल ग़ायब हो गयी, साथ में
    आपकी रचना और उसकी अन्य प्रतिक्रियाएँ भी।
    अतः पुनः लिख रही हूँ। दूसरे पक्ष की प्रतिष्ठा आपने अत्यन्त प्रभावशाली
    रीति से की है। बधाई!!

    कैसी निधि ? इस पर मन में विचार आया-

    जिन्होंने छोड़ा अपना देश ,
    उनमें से बहुतों ने छोड़ी
    अपनी भाषा अपना वेष ।
    *
    जो रहते अपने ही देश,
    उनमें से भी कितनों ने ही
    छोड़ी भाषा, छोड़ा वेष ।
    *
    भाषा ही तो अपनी निधि है,
    उस पर ही निर्भर संस्कृति है।
    भाषा संस्कृति की संवाहक ,
    वेष देश का है परिचायक।
    दोनों का संरक्षण हो जाए,
    तो.....देश का गौरव भी बढ़ जाए।।
    ***
    वैसे मेरा विश्वास है कि---- पीढ़ियाँ सक्षम बहुत हैं ,
    विविध निधियाँ
    हैं सँभाले।।
    शार्दुला जी,
    मॉरीशस से निकली " विश्व हिन्दी पत्रिका" में
    "सिंगापुर में हिन्दी प्रचार-प्रसार के 51 वर्ष " अध्याय में
    आपके विषय में विवरण पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। बधाई!!
    लेखक हैं-मुम्बई के श्री जितेन्द्र कुमार मित्तल, जो वर्ष 2009
    में आपसे कभी मिले होंगे।इसमें विश्व के सभी देशों में हिन्दी
    के पठन-पाठन और रचनात्मकता की चर्चा है।
    सद्भावनाओं सहित,
    शकुन्तला बहादुर

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  8. From: achal verma रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
    है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..
    कितना सटीक है आपका यह उदगार, चिरंतन सत्य, जो सबको सदा ही याद रहता है.
    " बिन माँके जीवन कहाँ , बिन मांगे मिल जाय .
    माता ने सिखला दिया,तब जग करे सहाय.

    माँ की ममता दिव्य है,माँ का प्यार निस्वार्थ
    शब्द जहां ये जुड़ गया, वह पूजा परमार्थ.
    सलिल जी, आपको सादर अभिवादन |

    Achal Verma

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  9. आ. सलिलजी,
    आप जो लिखते हैं तत्वपूर्ण होता है .
    साधुवाद,
    - प्रतिभा सक्सेना

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  10. आ.आचार्य जी,
    सदा की भाँति आपके ये दोहे भी तथ्यपूर्ण और प्रभावशाली हैं.

    शकुन्तला बहादुर

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