गुरुवार, 4 मार्च 2010

सामयिक दोहे : संजीव 'सलिल'

सामयिक दोहे :  संजीव 'सलिल'

बजट गिरा बिजली रहा, आम आदमी तंग.
राज्य-केंद्र दोनों हुए, हैं सेठों के संग.

इश्क-मुश्क छिपते नहीं, पूजा जैसे पाक.
करो ढिंढोरा पीटकर, हुए विरोधी खाक..

जागे जिसकी चेतना, रहिये उसके संग.
रंग दें या रंग जाइए, दोनों एक ही रंग..

सत्य-साधना कीजिये, संयम तजें न आप.
पत्रकारिता लोभ से, बन जाती है पाप..

तथ्यों से मत खेलिये, करें आंच को शांत.
व्यर्थ सनसनी से करें, मत पाठक को भ्रांत..

जन-गण हुआ अशांत तो, पत्रकार हो लक्ष्य.
जैसे तिनके हों 'सलिल', सदा अग्नि के भक्ष्य..

खल के साथ उदारता, सिर्फ भयानक भूल.
गोरी-पृथ्वीराज का, अब तक चुभता शूल..

होली हो ली, हो रही, होगी 'सलिल' हमेश.
क्यों पूजें हम? किस तरह?, यह समझें कमलेश..

लोक पर्व यह सनातन, इसमें जीवन-सत्य.
क्षण भंगुर जड़ जगत है, यहाँ न कुछ भी नित्य..

उसे जला दें- है नहीं, जिसका कुछ उपयोग.
सुख भोगें मिल-बाँटकर, 'सलिल' सुखद संयोग..

हर चेहरे पर हो सजा, नव जीवन का रंग.
कहीं न कुछ बदरंग हो, सबमें रहे उमंग..

नानाजी की देह का, 'सलिल' हो गया अंत.
वे हो गए विदेह थे, कर्मठ सच्चे संत..

जो सत्य लिखा होता, हाथों की लकीरों में.
तो आपको गिन लेता, यह वक़्त फकीरों में..

नानाजी ने जब दिया, निज शरीर का दान.
यही कहा तेरा नहीं कुछ, मत कर अभिमान..

नानाजी युग पुरुष थे, भारत मा के पूत.
आम आदमी हित जिए, कर्म देव के दूत..

राजनीति के तिमिर में, नानाजी थे दीप.
अनगिन मुक्ता-मणि लिए, वे थे मानव-सीप..

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5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  2. बेहतरीन प्रस्तुति...शब्द संयोजन अनोखा और संगीतमय है..

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  3. ब्लॉगर गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल',पॉडकास्टरसोमवार, मार्च 08, 2010 11:37:00 pm

    Bahut sundar hai ji

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  4. ब्लॉगर दिव्य नर्मदा divya narmada …सोमवार, मार्च 08, 2010 11:37:00 pm

    utsahvardhan hetu bahut-bahut dhanyavad.

    जवाब देंहटाएं