बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

नवगीत: रंगों का नव पर्व बसंती ---संजीव सलिल

नवगीत:

रंगों का नव पर्व बसंती

--संजीव सलिल
*
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

15 टिप्‍पणियां:

  1. अपर्णा चकित अपर्णा देख,
    अपर्णा है भू की काया. paNktiyaN achchhi lagi
    चित्र किताबों में देखें,
    बोली अनुमानें मौन. yahaN nichali pankti ko nahi samajh payi

    जवाब देंहटाएं
  2. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ...बुधवार, फ़रवरी 24, 2010 11:20:00 pm

    गीत में दोहा छन्द का प्रयोग
    सुन्दरता से किया गया है!

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  3. आचार्य जी,
    लाजवाब नवगीत! बधाई! मुझे बस बौर के लिंग को लेकर संशय है। मैं इसे पुल्लिंग समझता हूँ। मार्ग दर्शन चाहूँगा।
    सादर

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  4. कागा-कोयल का अंतर अब
    जाने कैसे कौन?
    चित्र किताबों में देखें,
    बोली अनुमानें मौन.
    भजन भुला कर डिस्को-गाना
    मंदिर में गाया.
    सद्भावों के जंगल गायब
    पर्वत पछताया

    बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ , पूरी रचना बहुत ही सुन्दर लगी संजीव सलिल साहब को बहुत बहुत बधाई धन्यवाद
    विमल कुमार हेडा

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  5. वाह सलिल जी,

    एलर्जी और हग को हिंदी में ऐसा जोड़ा है कि कोई कहेगा नहीं कि ये अंग्रेज़ी शब्द हैं।

    पिछली रचना में जहाँ अमित जी ने पर्यावरण, संस्कृति और पूँजीवाद पर चिंता व्यक्त की थी वहीं इस रचना में सलिल जी ने संस्कृति पर ही आधारित तीन मुद्दों को तीन अलग रंगों में प्रस्तुत किया है। नवगीत की कार्यशाला तो सचमुच जम रही है।

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  6. Blogger धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन' ...बुधवार, फ़रवरी 24, 2010 11:25:00 pm

    सलिल जी के नवगीतों से हम जैसे बच्चों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। एक बार फिर सुन्दर नवगीत लिखने के लिए बधाई।

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  7. है अबीर से उन्हें एलर्जी,
    रंगों से है बैर
    गले न लगते, हग करते हैं
    मना जान की खैर
    जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
    BAHUT SUNDER .
    SAADER
    RACHANA

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  8. true.

    पाश्चात्य नकल कर
    मोडर्न बन
    न घर के रहे
    न बाहर के
    व्हिस्की बीयर की हो मर्जी
    गुलाल अबीर से एलर्जी,
    सद्भावों के जंगल गायब
    अजब रंगों का पर्व बसंती

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  9. "आशा पंछी को खोजे से
    ठौर नहीं मिलती.
    महानगर में शिव-पूजन को
    बौर नहीं मिलती"
    अच्छी रचना है, नवगीत के काफी निकट भी है पर "ठौर नहीं मिलती" और " बौर नहीं मिलती" की जगह "आशा पंछी को खोजे से
    ठौर नहीं मिलता.
    महानगर में शिव-पूजन को
    बौर नहीं मिलता" हो तो रचना शुद्ध हो जाएगी। .

    -अरविन्द कुमार

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  10. सदैव की तरह ,सलिल जी को पढ़ना सुखकर है।
    परदेसी शब्दों का गीत मे रच बस जाना बहुत अच्छा लगा।

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  11. ''है अबीर से उन्हें एलर्जी,
    रंगों से है बैर
    गले न लगते, हग करते हैं
    मना जान की खैर''

    Waah! bahut satik ..!

    behtreen rachanake liye Aacharyaji ko bahut aabhar!

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  12. बहुत मस्त होली गीत..

    मजा आया आचार्य जी.

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  13. 'है अबीर से उन्हें एलर्जी,
    रंगों से है बैर
    गले न लगते, हग करते हैं
    मना जान की खैर
    जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
    'सलिल' मुस्कुराया
    सद्भावों के जंगल गायब
    पर्वत पछताया'

    haii dekho to hug kar rahe hain log aur aap pareshaan hai..are abhi tak to ii bhi mil raha baad mein yeho nahi milega...samjhe na..

    bahut khoob...

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  14. गीत सराहा, धन्यवाद लें, सफल हुआ लेखन.
    मिलें अदा से अदा गले तो धरती हो मधुवन..
    हग में नहीं मज़ा वैसा, जैसा है गले मिलने में.
    हग में है गैरियत, गले मिलने में अपनापन..

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  15. मंदिर में गाया.
    सद्भावों के जंगल गायब
    पर्वत पछताया

    बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ , पूरी रचना बहुत ही सुन्दर लगी संजीव सलिल साहब को बहुत बहुत बधाई धन्यवाद

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