रविवार, 31 जनवरी 2010

गीत: निर्झर सम / निर्बंध बहो... -संजीव 'सलिल'

गीत:  
निर्झर सम / निर्बंध बहो...  
-संजीव 'सलिल'
*
निर्झर सम

निर्बंध बहो,

सत नारायण

कथा कहो...

*


जब से

उजडे हैं पनघट.

तब से

गाँव हुए मरघट.

चौपालों में

हँसो-अहो...

*


पायल-चूड़ी

बजने दो.

नथ-बिंदी भी

सजने दो.

पीर छिपा-

सुख बाँट गहो...

*
अमराई

सुनसान न हो.

कुँए-खेत

वीरान न हो.

धूप-छाँव

मिल 'सलिल' सहो...

***************

8 टिप्‍पणियां:

  1. जब से
    उजडे हैं पनघट.
    तब से
    गाँव हुए मरघट.

    यथार्थ चित्रण और खूबसूरती से कही ग्रामीण परिवेश की व्यथा कथा.

    बहुत सुन्दर

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  2. वर्मा जी ने जो कहा मुझे भी उसी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया साथ ही आचार्य जी का ये सन्देश:

    धूप-छाँव
    मिल 'सलिल' सहो...
    धन्यवाद्

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  3. वर्मा जी ने जो कहा मुझे भी उसी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया

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  4. बहुत सुन्दर रचना

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  5. बहुत ही भावमय रचना सीधी अंतःकरन में उतर जाती है ....आभार !!

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  6. गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल' …बुधवार, फ़रवरी 03, 2010 10:56:00 am

    Adabhut

    shubh kamnayen.

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  7. श्याम कोरी 'उदय' …बुधवार, फ़रवरी 03, 2010 10:57:00 am

    ..... सार्थक, बेमिसाल, अद्भुत, खूबसूरत अभिव्यक्ति ..... प्रभावशाली व प्रसंशनीय !!!

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