गीत:
निर्झर सम / निर्बंध बहो...
-संजीव 'सलिल'
*
निर्झर सम
निर्बंध बहो,
सत नारायण
कथा कहो...
*
जब से
उजडे हैं पनघट.
तब से
गाँव हुए मरघट.
चौपालों में
हँसो-अहो...
*
पायल-चूड़ी
बजने दो.
नथ-बिंदी भी
सजने दो.
पीर छिपा-
सुख बाँट गहो...
*
अमराई
सुनसान न हो.
कुँए-खेत
वीरान न हो.
धूप-छाँव
मिल 'सलिल' सहो...
***************
निर्झर सम / निर्बंध बहो...
-संजीव 'सलिल'
*
निर्झर सम
निर्बंध बहो,
सत नारायण
कथा कहो...
*
जब से
उजडे हैं पनघट.
तब से
गाँव हुए मरघट.
चौपालों में
हँसो-अहो...
*
पायल-चूड़ी
बजने दो.
नथ-बिंदी भी
सजने दो.
पीर छिपा-
सुख बाँट गहो...
*
अमराई
सुनसान न हो.
कुँए-खेत
वीरान न हो.
धूप-छाँव
मिल 'सलिल' सहो...
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जब से
जवाब देंहटाएंउजडे हैं पनघट.
तब से
गाँव हुए मरघट.
यथार्थ चित्रण और खूबसूरती से कही ग्रामीण परिवेश की व्यथा कथा.
बहुत सुन्दर
वर्मा जी ने जो कहा मुझे भी उसी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया साथ ही आचार्य जी का ये सन्देश:
जवाब देंहटाएंधूप-छाँव
मिल 'सलिल' सहो...
धन्यवाद्
वर्मा जी ने जो कहा मुझे भी उसी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंlajwaab hai
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावमय रचना सीधी अंतःकरन में उतर जाती है ....आभार !!
जवाब देंहटाएंAdabhut
जवाब देंहटाएंshubh kamnayen.
..... सार्थक, बेमिसाल, अद्भुत, खूबसूरत अभिव्यक्ति ..... प्रभावशाली व प्रसंशनीय !!!
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