नवगीत:
संजीव 'सलिल'
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,
स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.
हर उभार पर, हर चढाव पर-
ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.
स्पर्शों की संवेदन-सिहरन
चुप अनुभव कर निज मन वारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
जब-जब तुम समतल पर चलना,
तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.
उषा सुनहली, शाम नशीली-
शशि-रजनी को देख मचलना.
मन से तन का, तन से मन का-
दरस करो, आरती उतारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
घटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,
कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.
चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को
खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.
नेह-नर्मदा में अवगाहन-
करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
रूप राशि को मौन निहारने की गाथा दिल को भा गई,आपके गीत की हर पंक्ति हमें भा गई..
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना..बधाई
सलिल जी!
जवाब देंहटाएंकुछ कहने वाली बात नही आपकी कविता का फ़ैन हो गया हूँ..
ये भी एक बेहतरीन रचना..जिसे बार बार गाया जाय..
बधाई हो..
जन विनोद कर सके जो, वह कवि-कविता धन्य.
जवाब देंहटाएं'सलिल' सराहे जो उसे, पाठक गुणी-अनन्य..
जब-जब तुम समतल पर चलना
जवाब देंहटाएंतनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.
उषा सुनहली, शाम नशीली
शशि-रजनी को देख मचलना.
मन से तन का, तन से मन का
दरस करो आरती उअतारो.
रूप-राशी को
मौन निहारो.
सुन्दर अभिव्यक्ति.
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
जवाब देंहटाएंसचमुच मौन कर देनेवाली कविता.... प्रकृति को इन आँखों से कोई देख भी ले पर इस तरह इन शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना कितनों के बीएस की बात है?...
जवाब देंहटाएंप्रकृति सदा मन रंजना, करती विमल विनोद.
जवाब देंहटाएं'सलिल' निरख कर लिख सके, हो निर्मल आमोद..