शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

नवगीत: माटी में-/ मिलना परिपाटी... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...
*

3 टिप्‍पणियां:

  1. गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल', jabalpur brigade ...शनिवार, दिसंबर 05, 2009 7:38:00 pm

    Nice

    चाह बहुत पर
    राह नहीं है.
    डाह बहुत पर
    वाह नहीं है.
    पर पीड़ा लख
    आह नहीं है.
    देख सचाई
    छाती फाटी..

    जवाब देंहटाएं
  2. विनोद कुमार पांडेय, khazana ...शनिवार, दिसंबर 05, 2009 7:39:00 pm

    मैं-तुम मिटकर
    हम हो पाते.
    खुशियाँ मिलतीं
    गम खो जाते.
    बिन मतलब भी
    पलते नाते.
    छाया लम्बी
    काया नाटी...

    अगर ऐसा होता तो अद्भुत होता और यह दुनिया भी बहुत खूबसूरत होती जो की वास्तव में होती कहने की कोई बात नही होती..

    बढ़िया रचना...धन्यवाद

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  3. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।
    संजय कुमार
    हरियाणा
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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