मंगलवार, 19 मई 2009

काव्य-किरण:

नवगीत


सारे जग को

जान रहे हम,

लेकिन खुद को

जान न पाए...


जब भी मुड़कर

पीछे देखा.

गलत मिला

कर्मों का लेखा.

एक नहीं

सौ बार अजाने

लाँघी थी निज

लछमन रेखा.



माया ममता

मोह लोभ में,

फँस पछताए-

जन्म गँवाए...



पाँच ज्ञान की,

पाँच कर्म की,

दस इन्द्रिय

तज राह धर्म की.

दशकन्धर तन

के बल ऐंठी-

दशरथ मन में

पीर मर्म की.



श्रवण कुमार

सत्य का वध कर,

खुद हैं- खुद से

आँख चुराए...



जो कैकेयी

जान बचाए.

स्वार्थ त्याग

सर्वार्थ सिखाये.

जनगण-हित

वन भेज राम को-

अपयश गरल

स्वयम पी जाये.




उस सा पौरुष

जिसे विधाता-

दे वह 'सलिल'

अमर हो जाये...


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3 टिप्‍पणियां:

  1. अर्चना श्रीवास्तवमंगलवार, मई 19, 2009 8:04:00 pm

    पारंपरिक प्रतीकों को अभिनव अर्थ देता हुआ प्रेरक नवगीत. क्या नवगीतों में केवल सामाजिक विषमताओं को समाहित करनेवाले इसे स्वीकार करेंगे?

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