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गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

अप्रैल १८, मनमोहन छंद, नवगीत, मुक्तिका, दोहा, लघुकथा, महाकाव्य, सॉनेट, भाषा, तकनीक

 सलिल सृजन अप्रैल १८ 
सॉनेट विमर्श १
*
१ सॉनेट अंग्रेजी से हिंदी में आयातित छंद है।
२ सॉनेट का वैशिष्ट्य १४ (न कम, न ज्यादा) पंक्तियाँ होना है।
सॉनेट की मुख्य दो शैलियां हैं जिनका प्रयोग क्रमशः शेक्सपियर व मिल्टन ने किया है।
४ शेक्सपियरी सॉनेट में ४ पंक्ति के तीन अंतरे तथा अंत में २ पंक्तियाँ होती हैं।
५ अंतरों में पहली-तीसरी पंक्ति की समान तुक होती है।
६ अंतरों की दूसरी-चौथी पंक्ति में भिन्न समान तुक होती है।
७ अंतिम दो पंक्तियों की तुक समान होती है।
८ साॅनेट की सब पंक्तियाँ समान पदभार की होती हैं।
तीनों अंतरों में समान याभिन्न-भिन्न, दोनों तरह के तुकांत लिए जा सकते हैं।
९ साॅनेट उच्चार पर आधारित वाचिक छंद है।
१० साॅनेट में सामान्यतः १५ उच्चार (१४-१६ मान्य) होते हैं।
११ सुविधा के लिए आरंभ में वर्ण या मात्रा के आधार पर साॅनेट लिखे जिसके हैं।
•••
सॉनेट विमर्श २
- सॉनेट का शाब्दिक अर्थ संक्षिप्त लयात्मक अभिव्यक्ति है। इसे 'कोयल की कूक' कह सकते हैं।
- सॉनेट सम शब्दांत अर्थात ऐसे शब्द जिनके अंतिम उच्चार समान हों।
- उच्चार गणना के लिए शब्द को बोलिए, आप अनुभव करेंगे कि पूरा शब्द हमेशा एक साथ नहीं बोला जाता। शब्द के कुछ उच्चार पहले, शेष बाद में बोले जाते हैं।
वतन, जतन जैसे शब्दों में 'तन' एक साथ 'तन्' की तरह बोला जाता है। उसके पूर्व का शब्द पहले बोल लिया जाता है।
वतन = व तन, उच्चार १ २, वर्ण १११, मात्रा १११।
आचमन = आच मन २१ ११,
आ चमन ×, आचम न ×
पुनरागमन = पुन रा गमन २ २१ २
पुनरा गमन २ २ १२
वर्ण ६, मात्रा ७
अघटनघटनापचीयसी
उच्चार अघ टन घट ना पची यसी
२ २ २ २ १ २ १ २ = १४
वर्ण ११
मात्रा १४
- उच्चार के नियम बोलने से बने हैं। ये व्यावहारिक हैं।
विद्या विद् या २ २ = ४
उक्त उक्त त २ १ = ३
रक्षा रक् शा २ २ = ४
निरक्षर कवि मात्रा, वर्ण न गिनकर भी उच्चार के आधार पर कविता कर लेते हैं।
- नियम यह कि किसी लघु उच्चार के बाद अर्ध उच्चार हो तो वह पूर्ववर्ती लघु उच्चार के साथ संयुक्त होकर उसे गुरु बनाता है।
- आद्य = आद् + य
वाक्य = वाक् + य
शाक्त = शाक् + त
मौर्य, फाख्ता, वांग्मय, दीक्षा
नियम - गुरु उच्चार के साथ अर्ध उच्चार पहले की तरह संयुक्त है किंतु गुरु यथावत है।
- तीक्ष्ण ती क् श् + ण = २ १ = ३
नियम - पूर्ववर्ती गुरु उच्चार में एक से अधिक अर्ध उच्चार जुड़ें तो गिने नहीं जाते।
- स्फूर्त, स्कूल, स्फीत, स्नेह, स्वार्थ, स्वागत, स्वयं, स्वगत, स्वयंभू आदि के उच्चारण में सजगता आवश्यक है। स्कूल का उच्चारण 'इस्कूल' न करें।
विशेष विमर्श
भाषा और तकनीक
*
'भा' अर्थात् प्रकाशित करना। भाना, भामिनी, भाव, भावुक, भाषित, भास्कर आदि में 'भा' की विविध छवियाँ दृष्टव्य हैं।
विज्ञान, तकनीक और यांत्रिकी में लोक और साहित्य में प्रचलित भावार्थ की लीक से हटकर शब्दों को विशिष्ट अर्थ में प्रयोग कर अर्थ विशेष की अभिव्यक्ति अपरिहार्य है।
'आँसू न बहा फरियाद न कर /दिल जलता है तो जलने दे' जैसी अभिव्यक्ति साहित्य में मूल्यवान होते हुए भी तथ्य दोष से युक्त है। विज्ञान जानता है कि दिल (हार्ट) के दुखने का कारण 'विरह' नहीं दिल की बीमारी है।
सामान्य बोलचाल में 'रेल आ रही है' कहा जाता है जबकि 'रेल' का अर्थ 'पटरी' होता है जिस पर रेलगाड़ी (ट्रेन) चलती है।
इसी तरह जबलपुर आ गया कहना भी गलत है। जबलपुर एक स्थान है जो अपनी जगह स्थिर है, आना-जाना वाहन या सवारी का कार्य है।
'तस्वीर तेरी दिल में बसा रखी है' कहकर प्रेमी और सुनकर प्रेमिका भले खुश हो लें, विज्ञान जानता है कि प्राणी बसता-उजड़ता है, निष्प्राण तस्वीर बस-उजड़ नहीं सकती। दिल तस्वीर बसाने का मकान नहीं शरीर को रक्त प्रदाय करने का पंप है।
आशय यह नहीं है कि साहित्यिक अभिव्यक्ति निरर्थक या त्याज्य हैं। कहना यह है कि शिक्षा पाने के साथ शब्दों को सही अर्थ में प्रयोग करना भी आवश्यक है विशेष कर तकनीकी विषयों पर लिखने के लिए भाषा और शब्द-प्रयोग के प्रति सजगता आवश्यक है।
'साइज' और 'शेप' दोनों के लिए आकार या आकृति का प्रयोग करना गलत है। साइज के लिए सही शब्द 'परिमाप' है।
सामान्य बोलचाल में 'गेंद' और 'रोटी' दोनों को 'गोल' कह दिया जाता है जबकि गेंद गोल (स्फेरिकल) तथा रोटी वृत्ताकार (सर्कुलर) है। विज्ञान में वृत्तीय परिपथ को गोल या गोल पिंड को वृत्तीय कदापि नहीं कहा जा सकता।
'कला' के अंतर्गत अर्थशास्त्र या समाज शास्त्र आदि को रखा जाना भी भाषिक चूक है। ये सभी विषय सामाजिक विज्ञान (सोशल साइंस) के यंग हैं।
शब्दकोशीय समानार्थी शब्द विज्ञान में भिन्नार्थों में प्रयुक्त हो सकते हैं। भाप (वाटर वेपर) और वाष्प (स्टीम) सामान्यत: समानार्थी होते हुए भी यांत्रिकी की दृष्टि से भिन्न हैं।
अणु एटम है, परमाणु मॉलिक्यूल पर हम परमाणु बम को एटम बम कह देते हैं।
हम सब यह जानते हैं कि पौधा लगाया जाता है वृक्ष नहीं, फिर भी 'पौधारोपण' की जगह 'वृक्षारोपण' कहते हैं।
बल (फोर्स) और शक्ति (स्ट्रैंग्थ) को सामान्य जन समानार्थी मानकर प्रयोग करता है पर भौतिकी का विद्यार्थी इनका अंतर जानता है।
कोई भाषा रातों-रात नहीं बनती। ध्वनि विज्ञान और भाषा शास्त्र की दृष्टि से हिंदी सर्वाधिक समर्थ है। हमारे सामने यह चुनौती है कि श्रेष्ठ साहित्यिक विरासत संपन्न हिंदी को विज्ञान और तकनीक के लिए सर्वाधिक उपयुक्त भाषा बनाएँ।
नव रचनाकार उच्च शिक्षित होने के बाद भी भाषा की शुद्धता के प्रति प्रायः सजग नहीं हैं। यह शोचनीय है। कोई भी साहित्य या साहित्यकार शब्दों का गलत प्रयोग कर यश नहीं पा सकता। अत:, रचना प्रकाशित करने के पूर्व एक-एक शब्द की उपयुक्तता परखना आवश्यक है।
***
विमर्श
हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
संस्कृत वांग्मय में काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंध। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या करता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।
महाकाव्य के तत्व -
महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।
१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सरगारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्रे: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपतुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।
२. नायक - महाकव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (सीता, कैकेयी, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकव्य रचा जाए। प्राय: एक नायक रखा जाता है किन्तु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकव्य लिखा जाए तो गोखले, टिकल। लाजपत राय, रविंद्र नाथ, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजरंदर प्रसाद आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।
३. रस - रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। महाकव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व् परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।
अन्य नियम - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरुप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु पथिक जी ने कारण पर लिखित महाकव्य का शीर्षक 'सूतपुत्र' रखकर इस परंपरा को तोडा है।
महाकाव्य : कल से आज
विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अन्तर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।
इस विरासत पर हिंदी साहित्य की महाकाव्य परंपरा में प्रथम दो हैं चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की रामचद्रिका में पांडित्य जनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत भी महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने प्रिय प्रवास और द्वारिका मिश्र ने कृष्णायन की रचना की। कामायनी - जयशंकर प्रसाद, वैदेही वनवास हरिऔध, सिद्धार्थ तथा वर्धमान अनूप शर्मा, दैत्यवंश हरदयाल सिंह, हल्दी घाटी श्याम नारायण पांडेय, कुरुक्षेत्र दिनकर, आर्यावर्त मोहनलाल महतो, नूरजहां गुरभक्त सिंह, गाँधी परायण अम्बिका प्रसाद दिव्य, उत्तर भगवत तथा उत्तर रामायण डॉ. किशोर काबरा, कैकेयी डॉ.इंदु सक्सेना देवयानी वासुदेव प्रसाद खरे, महीजा तथा रत्नजा डॉ. सुशीला कपूर, महाभारती डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, दधीचि आचार्य भगवत दुबे, वीरांगना दुर्गावती गोविन्द प्रसाद तिवारी, क्षत्राणी दुर्गावती केशव सिंह दिखित 'विमल', कुंवर सिंह चंद्र शेखर मिश्र, वीरवर तात्या टोपे वीरेंद्र अंशुमाली, सृष्टि डॉ. श्याम गुप्त, विरागी अनुरागी डॉ. रमेश चंद्र खरे, राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस रामेश्वर नाथ मिश्र अनुरोध, सूतपुत्र महामात्य तथा कालजयी दयाराम गुप्त 'पथिक', आहुति बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।
समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है।
१८-४-२०२०
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बांग्ला लघुकथा
सुअर की कहानी
चंदन चक्रवर्ती
*
प्रकाशक सिर पर खड़ा था। उसकी एक लघुकथा-संकलन निकालने की योजना थी। डेढ़ सौ शब्दों की एक लघुकथा लिखने के लिए मुझसे कहा। मैंने कहा, ‘‘लेखकों को आप दर्जी समझते हैं क्या? माप कर कथा लिखूँ ?’’
--अरे जनाब, समझते क्यों नहीं आप? यह माइक्रोस्कोपिक युग है। इसके अलावा अणु-परमाणु से ही तो मारक बमों को निर्माण होता है।
--इसका मतलब है कि कथा परमाणु बम की तरह फटेगी। भाई मेरे, अणु-परमाणु से थोड़ा हटकर नहीं सोचा जा सकता?
--वह कैसे?
--यानी कि पटाखा-कथा। थोड़ी आकार में बड़ी होगी। पटाखे की तरह फूटेगी।
प्रकाशक चला गया। मेरे मस्तिष्क में लघुकथा नहीं आती है। बीज डालकर सींचना पड़ेगा। अंकुर फूटेंगे, पेड़ बनेंगे। उसके बाद फूल-फल और फिर से बीज। इससे बाहर कैसे जा सकता हूँ? अंततः कुछ सोच-समझकर लिख ही डाला -----
‘‘दो सुअर थे। बच्चे जने दस-बारह। सुअर के बच्चों ने निर्णय लिया कि सारी दुनिया को सुअरों से भर देंगे। पहले उन्होंने निश्चित किया कि सिर्फ भादों में कुत्तों की तरह बच्चे जनेंगे। ....हजार-हजार सुअर। कीड़ों की तरह किलबिला रहे हैं। अब पशुशाला बनाएंगे। वह भी बनाया। पशुशाला के नियम-कानून बने। देश सुअरमय हुआ। उनकी आयु पाँच-दस वर्षों की है, पर ये रबर की तरह हैं। उम्र खिंचती चली जा रही है। बीस-पच्चीस-सत्ताइस-तीस और उससे भी अधिक। मजे से उनका घर-संसार चल रहा है।’’
प्रकाशक ने सुनकर कहा, ‘‘एक इन्सान की कहानी नहीं लिख सके?’’
मैं चौंक उठा, ‘‘तो फिर मैंने यह कहानी किसकी लिखी?’’
अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’
*
अरबी लघुकथा
वार्तालाप
समीरा मइने
*
'पूर्व का आदमी एक, दो, तीन या चार औरतों से शादी कर सकता है।'
'तुम एक, दो, तीन या चार मर्दों से शारीरिक संबंध रख सकती हो?'
'मैंने उनसे शादी तो नहीं की न?'
'तुम हेनरी से मुहब्बत करती हो?'
'थोड़ी-थोड़ी....'
और पॉप से?'
'ओह.... उसकी तो बात ही कुछ और है। '
तो फिर तुम दोनों से मुहब्बत करती हो?'
'क्या बात करती हो.... एक तीसरा शख्स भी मेरा दोस्त है, जिसके बारे में मैंने तुमको बताया ही नहीं कि वह 'टॉम' है जो मुझे घूमता है और उसके साथ जाने में मेरा खर्च कुछ भी नहीं होता।'
'ओह! समझी पूर्व का मर्द शारीरिक भूख के पीछे और पश्चिम की औरत धन और सुरक्षा के पीछे कई-कई संबंध बनाती है।
अनुवाद : नासिरा शर्मा
***
मुक्तक सलिला
*
मुक्त विचारों को छंदों में ढालो रे!
नित मुक्तक कहने की आदत पालो रे!!
कोकिलकंठी होना शर्त न कविता की-
छंदों को सीखो निज स्वर में गा लो रे!!
*
मुक्तक-मुक्तक मणि-मुक्ता है माला का।
स्नेह-सिंधु है, बिंदु नहीं यह हाला का।।
प्यार करोगे तो पाओगे प्यार 'सलिल'
घृणा करे जो वह शिकार हो ज्वाला का।।
*
जीवन कहता है: 'मुझको जीकर देखो'।
अमृत-विष कहते: 'मुझको पीकर देखो'।।
आँसू कहते: 'मन को हल्का होने दो-
व्यर्थ न बोलो, अधरों को सीकर देखो"।।
*
अफसर करे न चाकरी, नेता करे न काम।
सेठ करोड़ों लूटकर, करें योग-व्यायाम।।
कृषक-श्रमिक भूखे मरें, हुआ विधाता वाम-
सरहद पर सर कट रहे, कुछ करिए श्री राम।।
*
छप्पन भोग लगाकर नेता मिल करते उपवास।
नैतिकता नीलाम करी, जग करता है उपहास।।
चोर-चोर मौसेरे भाई, रोज करें नौटंकी-
मत लेने आएँ, मत देना, ठेंगा दिखा सहास।।
१८-४-२०१८
***
छंद बहर का मूल है: ६
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS ISI SSI SIS IS
सूत्र: रजतरलग।
चौदह वार्णिक शर्करी जातीय छंद।
बाईस मात्रिक महारौद्र जातीय छंद।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं।
*
देश-गीत गाइए, भेद भूल जाइए
सभ्यता महान है, एक्य-भाव लाइए
*
कौन था कहाँ रहा?, कौन है कहाँ बसा?
सम्प्रदाय-लिंग क्या?, भूल साथ आइए
*
प्यार-प्रेम से रहें, स्नेह-भाव ही गहें
भारती समृद्ध हो, नर्मदा नहाइए
*
दीन-हीन कौन है?, कार्य छोड़ मौन जो
देह देश में बनी, देश में मिलाइए
*
वासना न साध्य है, कामना न लक्ष्य है
भोग-रोग-मुक्त हो, त्याग-राग गाइए
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रियाँ, पाँच तत्व देह है
गह आत्म-आप का, आप में खपाइए
*
भारतीय-भारती की उतार आरती
भव्य भाव भव्यता, भूमि पे उतरिये
***
रोचक चर्चा:
गुड्डो दादी
ताल मिले नदी के जल से
नदी और सागर का मेल ताल क्यों ?
*
सलिल-वृष्टि हो ताल में, भरे बहे जब आप
नदी ग्रहण कर समुद तक, पहुँचे हो थिर-व्याप
लघु समुद्र तालाब है, महाताल है सिंधु
बिंदु कहें तालाब को, सागर को कह इंदु
१८-४-२०१७
***
आंकिक उपमान पूर्ण करें
(१) एक, भूमि, इंदु, रुप इ०
(२) द्वौ, अश्वि, पक्ष, अक्षि, दो, यम इ०
(३) त्रयः क्रम, ग्राम, राम, पुर, लोक, गुण, अग्नि इ०
(४) चत्वारः, अब्धिः, श्रुति, युग, कृत इ०
(५) पंच, इषु, वायु, भूत, अक्ष, बाण, इंद्रिय इ०
(६) षट्, रस, अंग, ऋतु, तर्क इ०
(७) सप्त, ऋषि, स्वर, तुरंग, पर्वत, मुनि, अश्र्व इ०
(८) अष्ट, वसु, सर्प, मतंगज, नाग इ०
(९) नव, संख्या, नंद, रंध्र, निधि, गो, अंक, नभश्वर, ग्रह, खग इ०
(१०) दश, आशा, दिशा इ० ( ० )शून्य, अभ्र, आकाश, ख, अंबर इ०
(११) एकादश, महेश्र्वर, रुद्र, शिव इ०
(१२) द्वादश, अर्क, आदित्य, सूर्य इ०
(१३) त्रयोदश, विश्र्वे इ०
(१४) चतुर्दश, मनु, इंद्र, भुवन इ०
(१५) पंचद्श, तिथि इ०
(१६) षोडश, कला, अष्टि, राज इ०
(१७) सप्तदश, घन, अत्यष्टि इ०
(१८) अष्टादश, धृति इ०
(१९) अतिधृति, एकोनविंशति इ०
(२०) विंशति, कृति, नख, अंगुलि इ०
(२१) एकविंशति, प्रकृति, मूर्च्छना, स्वः इ०
(२२) द्वाविंशति, जाति, आकृति इ०
(२३) त्रयोविंशति, विकृति, संकृति, अर्हत् इ०
(२४) चतुर्विशति, जिन, सिद्ध इ०
(२५) पंचविशति, तत्व, अतिकृति इ०
(२६) षडिंशति, उत्कृति इ०
(२७) सप्तविशति, भ, नक्षत्र इ०
(३२) द्वात्रिंशत्, दशन, द्विज इ०
(३३) त्रयस्त्रिंशत्, सुर इ०
(४९) ऊनपंचाशत्, तान इ०
***
दोहा सलिला:
.
फाँसी, गोली, फौज से, देश हुआ आजाद
लाठी लूटे श्रेय हम, कहाँ करें फरियाद?
.
देश बाँट कुर्सी गही, खादी ने रह मौन
बेबस लाठी सिसकती, दूर गयी रह मौन
.
सरहद पर है गडबडी, जमकर हो प्रतिकार
लालबहादुर बनें हम, घुसकर आयें मार
.
पाकी ध्वज फहरा रहे, नापाकी खुदगर्ज़
कुर्सी का लालच बना, लाइलाज सा मर्ज
.
दया न कर सर कुचल दो, देशद्रोह है साँप
कफन दफन को तरसता, देख जाय जग काँप
.
पुलक फलक पर जब टिकी, पलक दिखा आकाश
टिकी जमीं पर कस गये, सुधियों के नव पाश
.
देश बाँट कुर्सी गही, खादी ने रह मौन
बेबस लाठी सिसकती, दूर गयी रह मौन
.
सवा लाख से एक लड़, विजयी होता सत्य
मिथ्या होता पराजित, लज्जित सदा असत्य
.
झूठ-अनृत से दूर रह, जो करता सहयोग
उसका देश-समाज में, हो सार्थक उपयोग
.
सबका सबसे ही सधे, सत्साहित्य सुकाम
चिंता करिए काम की, किन्तु रहें निष्काम
.
संख्या की हो फ़िक्र कम, गुणवत्ता हो ध्येय
सबसे सब सीखें सृजन, जान सकें अज्ञेय
***
नवगीत:
.
राजा को गद्दी से काम
.
लोकतंत्र का अनुष्ठान हर
प्रजातंत्र का चिर विधान हर
जय-जय-जय जनतंत्र सुहावन
दल खातिर है प्रावधान हर
दाल दले जन की छाती पर
भोर, दुपहरी या हो शाम
.
मिली पटकनी मगर न चेते
केर-बेर मिल नौका खेते
फहर रहा ध्वज देशद्रोह का
देशभक्त की गर्दन रेते
हाथ मिलाया बाँट सिंहासन
नाम मुफ्त में है बदनाम
.
हों शहीद सैनिक तो क्या गम?
बनी रहे सरकार, आँख नम
गीदड़ भभकी सुना पडोसी
सीमा में घुस, करें नाक-दम
रंग बदलता देखें पल-पल
गिरगिट हो नत करे प्रणाम
.
हर दिन नारा नया गुंजायें
हर अवसर को तुरत भुनायें
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
दल से देश न ऊपर पायें
सकल देश के नेता हैं पर
दल हित साधें नित्य तमाम
.
दल का नहीं, देश का नेता
जो है, क्यों वह ताना देता?
सब हों उसके लिये समान
हँस सम्मान सभी से लेता
हो उदार समभावी सबके
बना न क्यों दे बिगड़े काम?
***
मुक्तिका:
.
बोलना था जब तभी लब कुछ नहीं बोले
बोलना था जब नहीं बेबात भी बोले
.
काग जैसे बोलते हरदम रहे नेता
गम यही कोयल सरीखे क्यों नहीं बोले?
.
परदेश की ध्वजा रहे फहरा अगर नादां
निज देश का झंडा उठा हम मिल नहीं बोले
.
रिश्ते अबोले रिसते रहे बूँद-बूँदकर
प्रवचन सुने चुप सत्य, सुनकत झूठ क्या बोले?
.
बोलते बाहर रहे घर की सभी बातें
घर में रहे अपनों से अलग कुछ नहीं बोले.
.
सरहद पे कटे शीश या छाती हुई छलनी
माँ की बचायी लाज, लाल चुप नहीं बोले.
.
नवगीत:
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मन की तराजू पर तोलो
.
'जीवन मुश्किल है'
यह सच है
ढो मत,
तनिक मजा लो.
भूलों को भूलो
खुद या औरों को
नहीं सजा दो.
अमराई में हो
बहार या पतझड़
कोयल कूके-
ऐ इंसानों!
बनो न छोटे
बात में कुछ मिसरी घोलो
.
'होता है वह
जो होना है''
लेकिन
कोशिश करना.
सोते सिंह के मुँह में
मृग को
कभी न पड़ता मरना.
'बोया-काटो'
मत पछताओ
गिर-उठ कदम बढ़ाओ.
ऐ मतिमानों!
करो न खोटे
काम, न काँटे बो लो.
.***
मुक्तिका:
.
हवा लगे ठहरी-ठहरी
उथले मन बातें गहरी
.
ऊँचे पद हैं नीचे लोग
सरकारें अंधी-बहरी
.
सुख-दुःख आते-जाते हैं
धूप-छाँव जैसे तह री
.
प्रेयसी बैठी है सर पर
मैया लगती है महरी
.
नहीं सुहाते गाँव तनिक
भरमाती नगरी शहरी
.
सबकी ख़ुशी बना अपनी
द्वेष जलन से मत दह री
१८-४-२०१५
*
मनमोहन छंद
जाति मानव, पदभार १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत नगण
*
अब तक देखे / अगिन सपन
बुझी न लेकिन / लगी अगन
अपलक हेरें / राह नयन
कहें अनकही / मूक वचन
१८-४-२०१४
*

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

श्री राम रक्षा स्तोत्र दोहानुवाद


श्री राम रक्षा स्तोत्र दोहानुवाद


दोहा अनुवाद: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'


विनियोग


श्री गणेश-विघ्नेश्वर, रिद्धि-सिद्धि के नाथ ।
चित्र गुप्त लख चित्त में, नमन करुँ नत माथ।।
ऋषि बुधकौशिक रचित यह, रामरक्षास्तोत्र।
दोहा रच गाये सलिल, कायथ कश्यप गोत्र।।
कीलक हनुमत, शक्ति सिय, देव सिया-श्री राम।
जाप और विनियोग यह, स्वीकारें अभिराम।।

ध्यान


दीर्घबाहु पद्मासनी, हों धनु-धारि प्रसन्न।
कमलाक्षी पीताम्बरी, है यह भक्त प्रपन्न।।
नलिननयन वामा सिया, अद्भुत रूप-सिंगार।
जटाधरी नीलाभ प्रभु, ध्याऊँ हो बलिहार।।


श्री रघुनाथ-चरित्र का, कोटि-कोटि विस्तार।
एक-एक अक्षर हरे, पातक- हो उद्धार।१।

नीलाम्बुज सम श्याम छवि, पुलिनचक्षु का ध्यान।
करुँ जानकी-लखन सह, जटाधारी का गान।२।

खड्ग बाण तूणीर धनु, ले दानव संहार।
करने भू-प्रगटे प्रभु, निज लीला विस्तार।३।

स्तोत्र-पाठ ले पाप हर, करे कामना पूर्ण।
राघव-दशरथसुत रखें, शीश-भाल सम्पूर्ण।४।

कौशल्या-सुत नयन रखें, विश्वामित्र-प्रिय कान।
मख-रक्षक नासा लखें, आनन् लखन-निधान।५।

विद्या-निधि रक्षे जिव्हा, कंठ भरत-अग्रज।
स्कंध रखें दिव्यायुधी, शिव-धनु-भंजक भुज।६।

कर रक्षे सीतेश-प्रभु, परशुराम-जयी उर।
जामवंत-पति नाभि को, खर-विध्वंसी उदर।७।

अस्थि-संधि हनुमत प्रभु, कटि- सुग्रीव-सुनाथ।
दनुजान्तक रक्षे उरू, राघव करुणा-नाथ।८।

दशमुख-हन्ता जांघ को, घुटना पुल-रचनेश।
विभीषण-श्री-दाता पद, तन रक्षे अवधेश।९।

राम-भक्ति संपन्न यह, स्तोत्र पढ़े जो नित्य।
आयु, पुत्र, सुख, जय, विनय, पाए खुशी अनित्य।१०।




वसुधा नभ पाताल में, विचरें छलिया मूर्त।
राम-नाम-बलवान को, छल न सकें वे धूर्त।११।

रामचंद्र, रामभद्र, राम-राम जप राम।
पाप-मुक्त हो, भोग सुख, गहे मुक्ति-प्रभु-धाम।१२।

रामनाम रक्षित कवच, विजय-प्रदाता यंत्र।
सर्व सिद्धियाँ हाथ में, है मुखाग्र यदि मन्त्र।१३।

पविपंजर पवन कवच, जो कर लेता याद।
आज्ञा उसकी हो अटल, शुभ-जय मिले प्रसाद।१४।

शिवादेश पा स्वप्न में, रच राम-रक्षा स्तोत्र।
बुधकौशिक ऋषि ने रचा, बालारुण को न्योत।१५।

कल्प वृक्ष, श्री राम हैं, विपद-विनाशक राम।
सुन्दरतम त्रैलोक्य में, कृपासिंधु बलधाम।१६।

रूपवान, सुकुमार, युव, महाबली सीतेंद्र।
मृगछाला धारण किये, जलजनयन सलिलेंद्र।१७।

राम-लखन, दशरथ-तनय, भ्राता बल-आगार।
शाकाहारी, तपस्वी, ब्रम्हचर्य-श्रृंगार।१८।

सकल श्रृष्टि को दें शरण, श्रेष्ठ धनुर्धर राम।
उत्तम रघु रक्षा करें, दैत्यान्तक श्री राम।१९।

धनुष-बाण सोहे सदा, अक्षय शर-तूणीर।
मार्ग दिखा रक्षा करें, रामानुज-रघुवीर।२०।

राम-लक्ष्मण हों सदय, करें मनोरथ पूर्ण।
खड्ग, कवच, शर,, चाप लें, अरि-दल के दें चूर्ण।२१।

रामानुज-अनुचर बली, राम दाशरथ वीर।
काकुत्स्थ कोसल-कुँवर, उत्तम रघु, मतिधीर।२२।

सीता-वल्लभ श्रीवान, पुरुषोतम, सर्वेश।
अतुलनीय पराक्रमी, वेद-वैद्य यज्ञेश।२३।

प्रभु-नामों का जप करे, नित श्रद्धा के साथ।
अश्वमेघ मख-फल मिले, उसको दोनों हाथ।२४।

पद्मनयन, पीताम्बरी, दूर्वा-दलवत श्याम।
नाम सुमिर ले 'सलिल' नित, हो भव-पार सुधाम।२५।

गुणसागर, सौमित्राग्रज, भूसुतेश श्रीराम।
दयासिन्धु काकुत्स्थ हैं, भूसुर-प्रिय निष्काम।२६क।

अवधराज-सुत, शांति-प्रिय, सत्य-सिन्धु बल-धाम।
दशमुख-रिपु, रघुकुल-तिलक, जनप्रिय राघव राम।२६ख।

रामचंद्र, रामभद्र, रम्य रमापति राम।
रघुवंशज कैकेई-सुत, सिय-प्रिय अगिन प्रणाम।२७।

रघुकुलनंदन राम प्रभु, भरताग्रज श्री राम।
समर-जयी, रण-दक्ष दें, चरण-शरण श्री धाम।२८।

मन कर प्रभु-पद स्मरण, वाचा ले प्रभु-नाम।
शीश विनत पद-पद्म में, चरण-शरण दें राम।२९।

मात-पिता श्री राम हैं, सखा-सुस्वामी राम।
रामचंद्र सर्वस्व मम, अन्य न जानूं नाम।३०।


लखन सुशोभित दाहिने, जनकनंदिनी वाम।
सम्मुख हनुमत पवनसुत, शतवंदन श्री राम।३१।

जन-मन-प्रिय, रघुवीर प्रभु, रघुकुलनायक राम।
नयनाम्बुज करुणा-समुद, करुनाकर श्री राम।३२।

मन सम चंचल पवनवत, वेगवान-गतिमान।
इन्द्रियजित कपिश्रेष्ठ दें, चरण-शरण हनुमान।३३।

काव्य-शास्त्र आसीन हो, कूज रहे प्रभु-नाम।
वाल्मीकि-पिक शत नमन, जपें प्राण-मन राम।३४।

हरते हर आपद-विपद, दें सम्पति, सुख-धाम।
जन-मन-रंजक राम प्रभु, हे अभिराम प्रणाम।३५।

राम-नाम-जप गर्जना, दे सुख-सम्पति मीत।
हों विनष्ट भव-बीज सब, कालदूत भयभीत।३६।

दैत्य-विनाशक, राजमणि, वंदन राम रमेश।
जयदाता शत्रुघ्नप्रिय, करिए जयी हमेश।३७ क।

श्रेष्ठ न आश्रय राम से, 'सलिल' राम का दास।
राम-चरण-मन मग्न हो, भव-तारण की आस।३७ ख।३७ख।

विष्णुसहस्त्रनाम सम, पावन है प्रभु-नाम।
रमे राम के नाम में, सलिल-साधना राम।३८।३८।

मुनि बुधकौशिक ने रचा, श्री रामरक्षास्तोत्र।
'शांति-राज'-हित यंत्र है, भाव-भक्तिमय ज्योत।३९।

आशा होती पूर्ण हर, प्रभु हों सत्य सहाय।
तुहिन श्वास हो नर्मदा, मन्वंतर गुण गाय।४०। 




राम-कथा मंदाकिनी, रामकृपा राजीव।
राम-नाम जप दे दरश, राघव करुणासींव।४१।
*********

श्री राम रक्षा स्तोत्र दोहानुवाद

दोहा अनुवाद: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

विनियोग

श्री गणेश-विघ्नेश्वर, रिद्धि-सिद्धि के नाथ ।

चित्र गुप्त लख चित्त में, नमन करुँ नत माथ।।

ऋषि बुधकौशिक रचित यह, रामरक्षास्तोत्र।

दोहा रच गाये सलिल, कायथ कश्यप गोत्र।।

कीलक हनुमत, शक्ति सिय, देव सिया-श्री राम।

जाप और विनियोग यह, स्वीकारें अभिराम।।

ध्यान

दीर्घबाहु पद्मासनी, हों धनु-धारि प्रसन्न।

कमलाक्षी पीताम्बरी, है यह भक्त प्रपन्न।।

नलिननयन वामा सिया, अद्भुत रूप-सिंगार।

जटाधरी नीलाभ प्रभु, ध्याऊँ हो बलिहार।।

श्री रघुनाथ-चरित्र का, कोटि-कोटि विस्तार।

एक-एक अक्षर हरे, पातक- हो उद्धार।१।

नीलाम्बुज सम श्याम छवि, पुलिनचक्षु का ध्यान।

करुँ जानकी-लखन सह, जटाधारी का गान।२।

खड्ग बाण तूणीर धनु, ले दानव संहार।

करने भू-प्रगटे प्रभु, निज लीला विस्तार।३।

स्तोत्र-पाठ ले पाप हर, करे कामना पूर्ण।

राघव-दशरथसुत रखें, शीश-भाल सम्पूर्ण।४।

कौशल्या-सुत नयन रखें, विश्वामित्र-प्रिय कान।

मख-रक्षक नासा लखें, आनन् लखन-निधान।५।

विद्या-निधि रक्षे जिव्हा, कंठ भरत-अग्रज।

स्कंध रखें दिव्यायुधी, शिव-धनु-भंजक भुज।६।

कर रक्षे सीतेश-प्रभु, परशुराम-जयी उर।

जामवंत-पति नाभि को, खर-विध्वंसी उदर।७।

अस्थि-संधि हनुमत प्रभु, कटि- सुग्रीव-सुनाथ।

दनुजान्तक रक्षे उरू, राघव करुणा-नाथ।८।

दशमुख-हन्ता जांघ को, घुटना पुल-रचनेश।

विभीषण-श्री-दाता पद, तन रक्षे अवधेश।९।

राम-भक्ति संपन्न यह, स्तोत्र पढ़े जो नित्य।

आयु, पुत्र, सुख, जय, विनय, पाए खुशी अनित्य।१०।

वसुधा नभ पाताल में, विचरें छलिया मूर्त।

राम-नाम-बलवान को, छल न सकें वे धूर्त।११।

रामचंद्र, रामभद्र, राम-राम जप राम।

पाप-मुक्त हो, भोग सुख, गहे मुक्ति-प्रभु-धाम।१२।

रामनाम रक्षित कवच, विजय-प्रदाता यंत्र।

सर्व सिद्धियाँ हाथ में, है मुखाग्र यदि मन्त्र।१३।

पविपंजर पवन कवच, जो कर लेता याद।

आज्ञा उसकी हो अटल, शुभ-जय मिले प्रसाद।१४।

शिवादेश पा स्वप्न में, रच राम-रक्षा स्तोत्र।

बुधकौशिक ऋषि ने रचा, बालारुण को न्योत।१५।

कल्प वृक्ष, श्री राम हैं, विपद-विनाशक राम।

सुन्दरतम त्रैलोक्य में, कृपासिंधु बलधाम।१६।

रूपवान, सुकुमार, युव, महाबली सीतेंद्र।

मृगछाला धारण किये, जलजनयन सलिलेंद्र।१७।

राम-लखन, दशरथ-तनय, भ्राता बल-आगार।

शाकाहारी, तपस्वी, ब्रम्हचर्य-श्रृंगार।१८।

सकल श्रृष्टि को दें शरण, श्रेष्ठ धनुर्धर राम।

उत्तम रघु रक्षा करें, दैत्यान्तक श्री राम।१९।

धनुष-बाण सोहे सदा, अक्षय शर-तूणीर।

मार्ग दिखा रक्षा करें, रामानुज-रघुवीर।२०।

राम-लक्ष्मण हों सदय, करें मनोरथ पूर्ण।

खड्ग, कवच, शर,, चाप लें, अरि-दल के दें चूर्ण।२१।

रामानुज-अनुचर बली, राम दाशरथ वीर।

काकुत्स्थ कोसल-कुँवर, उत्तम रघु, मतिधीर।२२।

सीता-वल्लभ श्रीवान, पुरुषोतम, सर्वेश।

अतुलनीय पराक्रमी, वेद-वैद्य यज्ञेश।२३।

प्रभु-नामों का जप करे, नित श्रद्धा के साथ।

अश्वमेघ मख-फल मिले, उसको दोनों हाथ।२४।

पद्मनयन, पीताम्बरी, दूर्वा-दलवत श्याम।

नाम सुमिर ले 'सलिल' नित, हो भव-पार सुधाम।२५।

गुणसागर, सौमित्राग्रज, भूसुतेश श्रीराम।

दयासिन्धु काकुत्स्थ हैं, भूसुर-प्रिय निष्काम।२६क।

अवधराज-सुत, शांति-प्रिय, सत्य-सिन्धु बल-धाम।

दशमुख-रिपु, रघुकुल-तिलक, जनप्रिय राघव राम।२६ख।

रामचंद्र, रामभद्र, रम्य रमापति राम।

रघुवंशज कैकेई-सुत, सिय-प्रिय अगिन प्रणाम।२७।

रघुकुलनंदन राम प्रभु, भरताग्रज श्री राम।

समर-जयी, रण-दक्ष दें, चरण-शरण श्री धाम।२८।

मन कर प्रभु-पद स्मरण, वाचा ले प्रभु-नाम।

शीश विनत पद-पद्म में, चरण-शरण दें राम।२९।

मात-पिता श्री राम हैं, सखा-सुस्वामी राम।

रामचंद्र सर्वस्व मम, अन्य न जानूं नाम।३०।

लखन सुशोभित दाहिने, जनकनंदिनी वाम।

सम्मुख हनुमत पवनसुत, शतवंदन श्री राम।३१।

जन-मन-प्रिय, रघुवीर प्रभु, रघुकुलनायक राम।

नयनाम्बुज करुणा-समुद, करुनाकर श्री राम।३२।

मन सम चंचल पवनवत, वेगवान-गतिमान।

इन्द्रियजित कपिश्रेष्ठ दें, चरण-शरण हनुमान।३३।

काव्य-शास्त्र आसीन हो, कूज रहे प्रभु-नाम।

वाल्मीकि-पिक शत नमन, जपें प्राण-मन राम।३४।

हरते हर आपद-विपद, दें सम्पति, सुख-धाम।

जन-मन-रंजक राम प्रभु, हे अभिराम प्रणाम।३५।

राम-नाम-जप गर्जना, दे सुख-सम्पति मीत।

हों विनष्ट भव-बीज सब, कालदूत भयभीत।३६।

दैत्य-विनाशक, राजमणि, वंदन राम रमेश।

जयदाता शत्रुघ्नप्रिय, करिए जयी हमेश।३७ क।

श्रेष्ठ न आश्रय राम से, 'सलिल' राम का दास।

राम-चरण-मन मग्न हो, भव-तारण की आस।३७ ख।३७ख।

विष्णुसहस्त्रनाम सम, पावन है प्रभु-नाम।

रमे राम के नाम में, सलिल-साधना राम।३८।

मुनि बुधकौशिक ने रचा, श्री रामरक्षास्तोत्र।

'शांति-राज'-हित यंत्र है, भाव-भक्तिमय ज्योत।३९।

आशा होती पूर्ण हर, प्रभु हों सत्य सहाय।

तुहिन श्वास हो नर्मदा, मन्वंतर गुण गाय।४०। 

राम-कथा मंदाकिनी, रामकृपा राजीव।

राम-नाम जप दे दरश, राघव करुणासींव।४१।