सरस्वती वंदना
बृज भाषा
*
सुरसती मैया की किरपा बिन, नैया पार करैगो कौन?
बीनाबादिनि के दरसन बिन, भव से कओ तरैगो कौन?
बेद-पुरान सास्त्र की मैया, महिमा तुमरी अपरंपार-
तुम बिन तुमरी संतानन की, बिपदा मातु हरैगो कौन?
*
धरा बरसैगी अमरित की, माँ सारद की जै कहियौ
नेह नरमदा बन जीवन भर, निर्मल हो कै नित बहियौ
किशन कन्हैया तन, मन राधा रास रचइयौ ग्वालन संग
बिना-मुरली बजा मोह जग, प्रेम गोपियन को गहियौ
***
संजीव
७९९९५५९६१८
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020
सरायकी हाइकु
सरायकी हाइकु
*
लिखीज वेंदे
तकदीर दा लेख
मिसीज वेंदे
*
चीक-पुकार
दिल पत्थर दा
पसीज वेंदे
*
रूप सलोना
मेडा होश-हवास
वजीज वेंदे
*
दिल तो दिल
दिल आख़िरकार
बसीज वेंदे
*
कहीं बी जाते
बस वेंदे कहीं बी
लड़ीज वेंदे
*
दिल दी माड़ी
जे ढे अपणै आप
उसारी वेसूं
*
सिर दा बोझ
तमाम धंधे धोके
उसारी वेसूं
*
साड़ी चादर
जितनी उतने पैर
पसारी वेसूं
*
तेरे रस्ते दे
कण्डये पलकें नाल
बुहारी वेसूं
*
रात अँधेरी
बूहे ते दीवा वाल
रखेसी कौन?
*
लिखेसी कौन
रेगिस्तान दे मत्थे
बारिश गीत?
*
खिड़दे हिन्
मौज बहारां फुल्ल
तैडे ख़ुशी दे
*
ज़िंदणी तो हां
पर मौत मिलदी
मंगण नाल
*
मैं सुकरात
कोइ मैं कूं पिलेसी
ज़हर वी न
*
तलवार दे
कत्ल कर दे रहे
नाल आदमी
*
बणेसी कौन
घुँघरू सारंगी तों
लोहे दे तार?
*
कौन करेंसी
नीर-खीर दा फर्क
हंस बगैर?
*
खून चुसेंदी
हे रखसाणी रात
जुल्मी सदियाँ
*
नवी रौशनी
डेखो दे चेहरे तों
घंड लहेसी
*
रब जाण दे
केझीं लाचारी हई?
कुछ न पुच्छो
*
आप छोड़ के
अपणे वतन कूं
रहेसी कौन?
*
खैर-खबर
जिन्हां यार ते पुछ
खुशकिस्मत
*
अलेसी कौन?
कबर दा पत्थर
मैं सुनसान
*
वंडेसी कौन?
वै दा दर्द जित्थां
अपणी पई
*
मरण बाद
याद करेसी कौन
दुनिया बिच?
*
झूठ-सच्च दे
कोइ न जाणे लगे
मुखौटे हिन्
*
संजीव
१८-१२-२०१९
७९९९५५९६१८
समीक्षा दोहा दीप्त दिनेश, नीना उपाध्याय
पुस्तक चर्चा:
कालजयी छंद दोहा का मणिदीप "दोहा दीप्त दिनेश"
चर्चाकार: प्रो. नीना उपाध्याय
*
'दोहा दीप्त दिनेश' के प्रथम दोहाकार श्री अनिल कुमार मिश्र ने 'मन वातायन खोलिए' में भक्ति तथा अनुराग मिश्रित आध्यात्म तथा वैष्णव व शाक्त परंपरा का सम्यक समावेशन करते हुए आज के मानव की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है-
देवी के मन शिव बसे, सीता के मन राम।
राधा के मन श्याम हैं, मानव के मन दाम।।
सगुण-निर्गुण भक्त और संत कवियों की भावधारा को प्रवाहित करते हुए दोहाकार कहता है-
राम-नाम तरु पर लगे, मर्यादा के फूल।
बल-पौरुष दृढ़ तना हो, चरित सघन जड़ मूल।।
दोहा लेखन के पूर्व व्यंग्य तथा ग़ज़ल-लेखन के लिए सम्मानित हो चुके इंजी. अरुण अर्णव खरे 'अब करिए कुछ काम' शीर्षक के अंतर्गत जान सामान्य की व्यथा, आस्था व् भक्ति का ढोंग रचनेवाले महात्माओं व् नेताओं के दोहरे आचरण पर शब्दाघात करते हुए कहते हैं-
राम नाम रखकर करें, रावण जैसे काम।
चाहे राम-रहीम हों, चाहे आसाराम।।
प्रिय-वियोग से त्रस्त प्रिया को बसंत की बहार भी पतझर की तरह प्रतीत हो रही है-
ऋतु बसंत प्रिय दूर तो, मन है बड़ा उदास।
हरसिंगार खिल योन लगे, उदा रहा उपहास।।
दोहा दीप्त दिनेश के तृतीय दोहाकार अविनाश ब्योहार व्यंग्य कविता, नवगीत व् लघुकथा में भी दखल रखते हैं। आपने "खोटे सिक्के चल रहे" शीर्षक के अंतर्गत पाश्चात्य सभ्यता और नगरीकरण के दुष्प्रभाव, पर्व-त्योहारों के आगमन, वर्तमान राजनीति, न्याय-पुलिस व सुरक्षा व्यवस्था पर सफल अभिव्यक्ति की है-
अंधियारे की दौड़ में, गया उजाला छूट।
अंधाधुंध कटाई से, वृक्ष-वृक्ष है ठूँठ।।
न्यायालयों में धर्मग्रंथ गीता की सौगंध का दुरूपयोग देखकर व्यथित अविनाश जी कहते हैं-
गीता की सौगंध का, होता है परिहास।
झूठी कसमें खिलाकर, न्याय करे परिहास।।
हास्य कवि इंजी. इंद्रबहादुर श्रीवास्तव " कौन दूसरा आ गया" शीर्षक के अनतरगत भक्ति रस, ऋतु वर्णन, देश-भक्ति तथा लगातार बढ़ती मँहगाई पर नीति दोहों की तरह सरल-सहज दोहे कहते हैं। देश-रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करनेवाले शहीद परिवार के प्रति अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हुए कवि कहते हैं-
रक्षा करते वतन की, जो देकर बलिदान।
हम उनके परिवार को, अपनाकर दें मान।।
निरंतर बढ़ती हुई मँहगाई को दोहों के माध्यम से प्रगट करते हुए आप कहते हैं-
मुश्किल से हो पा रहा, अब जीवन-निर्वाह।
मँहगाई आकाश छू, बढ़ा रहे है चाह।।
दोहाकार श्रीमती कांति शुक्ल 'उर्मि' ने "देखे फूल पलाश" शीर्षक से नीति, भक्ति, ऋतु वर्णन तथा श्रम की महत्ता पर सजीव दोहे कहे हैं। जो. तुलसीदास की चौपाई" कलियुग केवल नाम अधारा" के अनुरूप राम-नाम की महत्ता प्रतिपादित करते हुए वे कहती हैं-
राम-नाम सुख मूल है, अतिशय ललित-ललाम।
सम्मति, शुभ गति, अति प्रियं, सकल लोक अभिराम।।
कवि पद्माकर ने बसंत को ऋतुराज माना है। इस मान्यता से सहमत कांता जी कहती हैं-
धानी आँचल धरा का, उड़ता है स्वच्छंद।
ऋतु बसंत उल्लासमय, लिखती मधुरिम छंद।।
जल संसाधन विभाग से सेवा निवृत्त इंजी. गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' ने "छोड़ गुलामी मानसिक" शीर्षक के अंतर्गत वीर रस से ओत-प्रोत दोहे, औद्योगिकीकरण के दुष्परिणाम, भारतीय संस्कृति की विशेषता अनेकता में एकता तथा बेटी को लक्ष्मी के समान, दो कुलों की शान तथा घर की आन बताया है।
समर्पित स्वतंत्रता सत्याग्रही के पुत्र मधुर जी ने स्वातंत्र्य-वीरों को स्मरण करते हुए उन्हें प्रतिमान बताया है-
दीवाने स्वातंत्र्य के, अतुल अमर अवदान।
नमन वीरता-शौर्य को, प्राणदान प्रतिमान।।
विश्व की संस्कृतियों में भारत की संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए अपने कहा है कि-
अनेकता में एकता, इंद्रधनुष से रंग।
है विशिष्टता देश की, देखे दुनिया दंग।।
प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध' ने "जीवन में आनंद" शीर्षक से विगत नौ दशकों में हुए परिवर्तन और विकास को अपने दोहों के माध्यम से व्यक्त करते हुए शिल्प पर कथ्य को प्राथमिकता दी है। आपके आदर्श ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीर दास जी हैं। सामाजिक समरसता का भाव दोहा में व्यक्त करते हुए विदग्ध जी कहते हैं कि मनुष्य सद्गुणों से ही सम्मान का अधिकारी बनता है, धन से नहीं-
गुणी व्यक्ति का ही सदा, गुणग्राहक संसार।
ऐसे ही चलता रहा, अग-जग-घर-परिवार।।
श्री रामचरित मानस में गो. तुलसीदास प्रभु श्री राम के माध्यम से कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
इस चौपाई के कथ्य की सार्थकता प्रमाणित करते हुए विदग्ध जी कहते हैं-
जिसका मन निर्मल उसे, सुखप्रद यह संसार।
उसे किसी का भय नहीं, सबका मिलता प्यार।।
संकलन के आठवें दोहाकार डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ने जन सामान्य के जन-जीवन की दोहों के माध्यम से सरल सहज अभिव्यक्ति की है। आपके दोहों में कहीं-कहीं व्यंग्य का पुट भी समाहित है। प्रायः देखा जाता है कि बड़े-बड़े अपराधी बच निकलते हैं जबकि नौसिखिये पकड़े जाते हैं। लोकोक्ति है कि हाथी निकल गया, पूँछ अटक गई'। बघेल जी इस विसंगति को दोहे में ढाल कर कहते हैं-
लेते ही पकड़े गए, रिश्वत रुपए पाँच।
पाँच लाख जिसने लिए, उसे न आई आँच।।
आपने अपनी पैनी दृष्टि से सामाजिक व व्यक्तिगत को है व्यंग्य द्वारा दोहों का सजीव सृजन करने का करने का उत्तम प्रयास किया है-
बुध्द यहीं बुद्धू बने, विस्मृत हुआ अशोक।
कलमों ने लीकें रचीं, चलता आया लोक।।
संकलन के नवमें दोहाकार मनोज कुमार 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं। आपके दोहे बाल शिक्षा के लिए उपयोगी होने के साथ-साथ भावी पीढ़ी के दिशा-निर्देश की सामर्थ्य रखते हैं। : मन-विश्वास जगाइए' शीर्षक के अंतर्गत आपने आदिशक्ति की उपासना से दोहों का श्री गणेश किया है। राम चरित मानस की चौपाई 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा, करहिं सो तस फल चाखा' तथा गीता के कर्मयोग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए मनोज जी कहते हैं-
बिना कर्म के व्यर्थ है, इस जग में इंसान।
गीता की वाणी कहे, कर्म बने पहचान।।
गोंडवाना राज्य की रानी वीरांगना दुर्गावती के शौर्य-पराक्रम को आपने वर्णन 'यश कथा' में किया है-
शासन सोलह वर्ष का, रहा प्रजा में हर्ष।
जनगण का सहयोग ले, किया राज्य-उत्कर्ष।।
श्री महातम मिश्रा संकलन के दसवें दोहाकार हैं। आपने खड़ी बोली और भोजपुरी मिश्रित भाषा शैली में ईश भक्ति, प्रकृति, पर्यावरण, भारतीय संस्कृति आदि के साथ ही जीवनानुभवों को दोहों में पिरोने का कार्य किया है। दिन-ब-दिन दूषित होते जाते पर्यावरण को शुद्ध और हरा-भरा बनाये रखने हेतु सचेत करते हुए मिश्र जी कहते हैं-
पर्यावरण सुधार लो, सबकी होगी खैर।
जल जीवन सब जानते, जल से करें न बैर।।
देश में जनसंख्या-वृद्धि के कारण बेरोजगारी तीव्र गति से फ़ैल रही है। उपाधिधारी युवा लघु-कुटीर उद्योग अथवा अन्य उपलब्ध कार्य करना अपनी योग्यता के विरुद्ध मानकर निठल्ले घूम रहे हैं। मिश्र जी कहते हैं-
रोजगार बिन घूमता, डिग्री-धार सपूत।
घूम रहा पगला रहा, जैसे काला भूत।।
संकलन के ग्यारहवें दोहाकार श्री राजकुमार महोबिया ने "नई प्रगति के मंच पर" शीर्षक के माध्यम से भक्ति, श्रृंगार, पर्यावरण आदि पर केंद्रित दोहे रचने का सफल प्रयास कर, सर्वप्रथम सरस्वती जी की आराधना की है-
विद्या-बुद्धि-विवेक का, रहे शीश पर हाथ।
वीणा पुस्तक धारिणी, सदा नवाऊँ माथ।।
पेड़ों को काटकर प्रकृति को पहुँचाई जा रही क्षति युवा राजकुमार को व्यथित करती है-
जंगल-जंगल में गिरी, विस्थापन की गाज।
सागौनों शोर में, कौन सुने आवाज।।
श्री रामलखन सिंह चौहान 'भुक्कड़' जी ने "सम्यक करे विकास जग" शीर्षक से पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक सद्भाव तथा समरसता वृद्धि के दोहों का सफल सृजन किया है। स्वस्थ्य जीवन के लिए आपने खान-पान पर नियंत्रण रखने की बात कही है-
खान-पान के दोष से, बीमारी बिन मोल।
करे अतिथि सत्कार क्यों?, कोल्ड ड्रिंक घोल।।
राजनेताओं के क्रिया-कलापों से परेशान मतदाताओं की व्यथा को आपने दोहों में करते हुए है-
मतदाता हैं सोच में, सौंपे किसे कमान?
जो भी बैठे तख़्त पर, मनमानी ले ठान।।
संकलन के तेरहवें दोहाकार प्रो. विश्वम्भर शुक्ल ने "आनंदित होकर जिए" शीर्षक से भारतीय संस्कृति, वर्तमान राजनीति भक्ति-प्रधान एवं श्रृंगारपरक दोहों की सारगर्भित-सरल-सहज अभिव्यक्ति लयात्मकता और माधुर्य के साथ की है। आपके दोहों में प्रसाद युग की तरह सौंदर्य और कल्पना दोनों का सुंदर समन्वय देखा जा सकता है-
उगा भाल पर बिंदु सम, शिशु सूरज अरुणाभ।
अब निंदिया की गोद में, रहा कौन सा लाभ।।
हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता को संपूर्ण विश्व की भाषाओँ में अद्वितीय बताते हुए आपने लिखा है-
शब्द ग्रहण साहित्य हो, धनी बढ़े लालित्य।
सकल विश्व में दीप्त हो, हिंदी का आदित्य।।
वर्षा ऋतु के आगमन के साथ जिसमें प्रिय अपने प्रियतम की निरंतर राह देख रही है हुए उसके आने की सूचना पाते ही उसका मन मयूर हो जाता है। संयोग श्रृंगार की उत्तम अभिव्यक्ति का रसानंद अद्भुत है-
लो घिर आए निठुर गहन, ऐसा चढ़ा सुरूर।
प्रिय के पग की चाप सुन, मन हो गया मयूर।।
दोहाकार श्रीमती शशि त्यागी ने "हँसी-ठिठोली ही भली" शीर्षक से नैतिक मूल्यों, कृषि, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ एवं प्रकृति के द्वारा प्रस्तुत किया है। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड की स्मृति में आपने लिखा है-
सदा गवाही रहा, जलियाँवाला बाग़।
आज़ादी की बलि चढ़ा, देश-धर्म अनुराग।।
पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन हेतु पौधे लगाने का संदेश देते हुए शशि जी को कटते हुए वृक्ष की पीड़ा भी याद आती है-
मानव मन कपटी हुआ, दया न किंचित शेष।
पौध लगाए वृक्ष हो, काटे पीर अशेष।।
ब्रज धाम के सौंदर्य और उसके अधिष्ठाता प्रभु श्री कृष्ण की मधुर मुरली की तान को दोहे द्वारा शशि जी ने सुंदरता से अभिव्यक्त किया है-
श्यामा प्रिय घनश्याम को, ब्रज की शोभा श्याम।
अधर मधुर मुरली धारी, सुने धेनु अविराम।।
संकलन के अंतिम सोपान पर "जीवन नाट्य समान" शीर्षक से दोहाकार श्री संतोष नेमा ने वर्षा ऋतु की प्राकृतिक सुंदरता, गोंडवाना की महारानी दुर्गावती की वीरता, हिंदी साहित्य में संत कबीरदास के अवदान के साथ ही धर्म-अध्यात्म को अपने दोहों का विषय बनाया है। आपने आज मानव कल्याणकारी और हितकारी बताते हुए कहा-
मानवता का धर्म ही, है कबीर की सीख।
दिखा गए हैं प्रेम-पथ, सबके जैसा दीख।।
भारतीय संस्कृति की नींव संयुक्त परिवार प्रणाली को संस्कार का कोष बताते हुए संतोष जी कहते हैं-
नींव नहीं परिवार बिन, यह जीवन-आधार।
संस्कार का कोष है, सभी सुखों का सार।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' तथा प्रो. साधना वर्मा के संपादकत्व में विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के सारस्वत अनुष्ठान 'दोहा शतक मंजूषा' के भाग ३ 'दोहा दीप्त दीनेष में १५ दोहाकारों ने विविध विषयों और प्रसंगों पर अपने चिंतन की दोहा में अभिव्यक्ति की है। भक्ति, अध्यात्म, प्रकृति चित्रण, राष्ट्र-अर्चन, बलिदानियों का वंदन, श्रृंगार, राजनीति, सामयिक समस्याएँ, पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन आदि विषयों को समाहित करते हुए 'दोहा दीप्त दिनेश' के दोहे सहज प्रवाही भाषा और संतुलित भाषाभिव्यक्ति के साथ शिल्प विधान का वैशिष्ट्य प्रगट करते हैं।
***
संपर्क: हिंदी विभाग, शासकीय मानकुँवर बाई स्वशासी स्नाकोत्तर महिला महाविद्यालय जबलपुर।
लघुकथा: ठण्ड
लघुकथा:
ठण्ड
*
संजीव
बाप रे! ठण्ड तो हाड़ गलाए दे रही है। सूर्य देवता दिए की तरह दिख रहे हैं। कोहरा, बूँदाबाँदी, और बरछी की तरह चुभती ठंडी हवा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि कार्यालय जाना भी जरूरी और काम निबटाकर लौटते-लौटते अब साँझ ढल कर रात हो चली है। सोचते हुए उसने मेट्रो से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाए। हवा का एक झोंका गरम कपड़ों को चीरकर झुरझुरी की अनुभूति करा गया।
तभी चलभाष की घंटी बजी, भुनभुनाते हुए उसने देखा, किसी अजनबी का क्रमांक दिखा। 'कम्बख्त न दिन देखते हैं न रात, फोन लगा लेते हैं' मन ही मन में सोचते हुए उसने अनिच्छा से सुनना आरंभ किया- "आप फलाने बोल रहे हैं?" उधर से पूछा गया।
'मेरा नंबर लगाया है तो मैं ही बोलूँगा न, आप कौन हैं?, क्या काम है?' बिना कुछ सोचे बोल गया। फिर आवाज पर ध्यान गया यह तो किसी महिला का स्वर है। अब कडुवा बोल जाना ख़राब लग रहा था पर तोप का गोला और मुँह का बोला वापिस तो लिया नहीं जा सकता।
"अभी मुखपोथी में आपकी लघुकथा पढ़ी, बहुत अच्छी लगी, उसमें आपका संपर्क मिला तो मन नहीं माना, आपको बधाई देना थी। आम तौर पर लघुकथाओं में नकली व्यथा-कथाएँ होती हैं पर आपकी लघुकथा विसंगति इंगित करने के साथ समन्वय और समाधान का संकेत भी करती है। यही उसे सार्थक बनाता है। शायद आपको असुविधा में डाल दिया... मुझे खेद है।"
'अरे नहीं नहीं, आपका स्वागत है.... ' दाएँ-बाएँ देखते हुए उसने सड़क पार कर गली की ओर कदम बढ़ाए। अब उसे नहीं चुभ रही थी ठण्ड।
१८-१२-२०१८
***
मुक्तक
मुक्तक
जब तक चंद्र प्रकाश दे
जब तक है आकाश।
तब तक उद्यम कर सलिल
किंचित हो न निराश।।
जब तक चंद्र प्रकाश दे
जब तक है आकाश।
तब तक उद्यम कर सलिल
किंचित हो न निराश।।
*
रौंद रहे कलियों को माली,
गईँ बहारें रूठ।
बगिया रेगिस्तान हो रहीं,
वृक्ष कर दिए ठूँठ।।
*
जग उठ चल बढ़ गिर मत रुक
ठिठक-झिझिक मत, तू मत झुक।
उठ-उठ कर बढ़, मंजिल तक-
'सलिल' सतत चल, कभी न चुक।।
*
नियति का आशीष पाकर 'सलिल' बहता जा रहा है।
धरा मैया की कृपा पा गीत कलकल गा रहा है।।
अतृप्तों को तृप्ति देकर धन्य जीवन कर रहा है-
पातकों को तार कर यह नर्मदा कहला रहा है।।
*
१८-१२-२०१८
समीक्षा, सच कहूँ तो, निर्मल शुक्ल, नवगीत
पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
नवगीत की सृजन यात्रा को इस दशक में वैविध्य और विकास के सोपानों से सतत आगे ले जानेवाले महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में लखनऊ निवासी निर्मल शुक्ला जी की भूमिका महत्वपूर्ण है। नवगीतकार, नवगीत संपादक, नवगीत प्रकाशक और नव नवगीतकार प्रोत्साहक की चतुर्मुखी भूमिका को दिन-ब-दिन अधिकाधिक सामर्थ्य से मूर्त करते निर्मल जी अपनी मिसाल आप हैं। 'सच कहूँ तो' निर्मल जी के इकतीस जीवंत नवगीतों का बार-बार पठनीय ही नहीं संग्रहणीय, मननीय और विवेचनीय संग्रह भी है। निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं जीते हैं। ''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो
पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी
सारी इबारत
अब गुरु जी
शब्द अब तक
आपने जितने पढ़ाये
याद हैं सब
स्मृति में अब भी
तरोताज़ा
पृष्ठ के संवाद हैं अब
.
सच कहूँ तो
छोड़ आए
हम अँधेरों की बहुत
पीछे इमारत
अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी
शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो
कृत्य की परिकल्पना,
अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित
भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी
हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो
धरणि से
आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच
संस्कृत
चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो
हर किसी के दर्द को
अपना समझना
हो सके तो
एक पल को मान लेना
हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो
साँस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो
उन क्षणों में, एक छोटी
चूक से
बचना-सम्हलना
हो सके तो
एक पल को, कोख की
हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत
हवा के
हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में रचनात्मकता का आव्हान है-
'नदी से जन्मती है
सच कहूँ तो
आज संस्कृतियाँ'
.
नदी के कंठ में कल-कल
उफनती धार में छल-छल
प्रकृति को
बाँटती सुषमा
लुटाती राग वेगों में.
.
अछूती अल्पना देकर
सजाती छरहरे जंगल
प्रवाहों में समाई
सच कहूँ तो
आज विकृतियाँ'.....
...तरंगों में बसी हैं
सच कहूँ तो
स्वस्ति आकृतियाँ...
....सिरा लें, आज चलकर
सच कहूँ तो
हर विसंगतियाँ '
निर्मल जी के नवगीत सत्यजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग
फिर जल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
बादलों की, परत
फिर गल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज
भी खुलकर बजेंगी देख लेना
सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गुनगुनाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, दो बिम्बों, प्रतीकों या विचारों के बीच सेतु बनाते हैं।
उर्दू ग़ज़ल में लम्बे-लम्बे रदीफ़ रखने की चुनौती स्वीकारनेवाले गजलकारों की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज-सज्जा के साथ प्रयोग करने का कौशल रखते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुँचात है कि बारम्बार पुनरावृत्तियों के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समूचा नवगीत इस 'सच कहूँ के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयता में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ - तहँ करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम,
संवेदन के जुगनू हैं
हम से
तम भी थर्राता है
निर्मल जी नवगीत में नए रुझान के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते उनके नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में
नाव कागजी भी
उतराती है
सच कह दूँ तो
रोज सभ्यता
आँख चुराती है...
...ऐसे में तो, जी करता है
सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को
मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
किंतु वेदना संघर्षों की
सिर चढ़ जाती है
सच कह दूँ तो
यहाँ सभ्यता
चीख दबाती है
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दलित-पीड़ित को हौसला देने और दालान-मुक्ति से संघर्ष का संबल बनने का परोक्ष संदेश अंतर्निहित कर पाना है। यह संदेश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है, अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह सुग्राह्य रख पाना निर्मल जी का वैशिष्ट्य है-
इसी समय यदि
समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें
तो,
आगे अच्छे दिन होंगे
यही समय है
सच कह दूँ तो
फिर जीने के
और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित
जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर
समय बाँचकर
समां गया आँगन में सारा
रंग-बिरंगे अंबर होंगे
सच कह दूँ तो
फिर जीने के वासंती
संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल in नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की असाधारण अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है।
नवगीत की बढ़ती लोकप्रियता और तथाकथित प्रगतिशील कविता की लोक विमुखता ने नवगीत के रचनाक्षेत्र में अयाचित हस्तक्षेप और अतिक्रमणों को जन्म दिया है। साम्यवादी चिंतन से प्रभावित लोगों ने नवगीत की लोक संवेदना के मूल में नयी कविता की वैचारिकता होने की, उर्दू ग़ज़ल के पक्षधरों ने नवगीत की सहज-सरस कहन पर ग़ज़ल से आयातित होने की जुमलेबाजी करते हुए नवगीत में पैठ बनने का सफल प्रयास किया है। निर्मल जी ऐसी हास्यास्पद कोशिशों से अप्रभावित रहते हुए नवगीत में अन्तर्निहित पारंपरिक गीतज लयात्मकता, लोकगीतीय अपनत्व तथा गीति-शास्त्रीय छान्दस विरासत का उपयोग कर वैयक्तिक अनुभूतियों को वैचारिक प्रतिबद्धता, अन्तरंग अभिव्यक्ति और रचनात्मक लालित्य के साथ सम्मिश्रित कर सम्यक शब्दों, बिम्बों और प्रतीकों की ऐसी नवगीत-बगिया बनाते हैं जो रूप-रंग-गंध और आकार का सुरुचिसंपन्न स्वप्न लोक साकार कर देता है। पाठक और श्रोता इस गीत-बगिया में भाव कलियों पर गति-यति भ्रमर तितलियों को लय मधु का पान करते देख सम्मोहित सा रह जाता है। नवगीत लेखन में प्रविष्ट हो रहे नव हस्ताक्षरों के लिए निर्मल जी के नवगीत संकलन पाठ्य पुस्तकों की तरह हैं जिनसे न्यूनतम शब्दों में अधिकताम अर्थ अभिव्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है।
इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
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नवगीत
नवगीत:
पेशावर के नरपिशाचधिक्कार तुम्हें
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दिल के टुकड़ों से खेली खूनी होली
शर्मिंदा है शैतानों की भी टोली
बना न सकते हो मस्तिष्क एक भी तुम
मस्तिष्कों पर मारी क्यों तुमने गोली?
लानत जिसने भेज
किया लाचार तुम्हें
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दहशतगर्दों! जिसने पैदा किया तुम्हें
पाला-पोसा देखे थे सुख के सपने
सोचो तुमने क़र्ज़ कौन सा अदा किया
फ़र्ज़ निभाया क्यों न पूछते हैं अपने?
कहो खुदा को क्या जवाब दोगे जाकर
खला नहीं क्यों करना
अत्याचार तुम्हें?
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धिक्-धिक् तुमने भू की कोख लजाई है
पैगंबर मजहब रब की रुस्वाई है
राक्षस, दानव, असुर, नराधम से बदतर
तुमको जननेवाली माँ पछताई है
क्यों भाया है बोलो
हाहाकार तुम्हें?
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नवगीत
नवगीत:
बस्ते घर से गए पर
लौट न पाये आज
बसने से पहले हुईं
नष्ट बस्तियाँ आज
.
है दहशत का राज
नदी खून की बह गयी
लज्जा को भी लाज
इस वहशत से आ गयी
गया न लौटेगा कभी
किसको था अंदाज़?
.
लिख पाती बंदूक
कब सुख का इतिहास?
थामें रहें उलूक
पा-देते हैं त्रास
रहा चरागों के तले
अन्धकार का राज
.
ऊपरवाले! कर रहम
नफरत का अब नाश हो
दफ़्न करें आतंक हम
नष्ट घृणा का पाश हो
मज़हब कहता प्यार दे
ठुकरा तख्तो-ताज़
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१८-१२-२०१४
