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शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

लेख: उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा, राही मासूम रज़ा

विमर्श 
(प्रस्तुत है विख्यात साहित्यकार राही मासूम रज़ा का लेख. पढ़िये, समझिए और अपने विचार सांझाकरने के साथ अपने सृजन की भाषा तय करें, अपने विचारों के लिए शब्द चुनें। -संजीव)

उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा 
राही मासूम रज़ा 
*
यह ग्यारहवीं या बारहवीं सदी की बात है कि अमीर खुसरू ने लाहौरी से मिलती-जुलती एक भाषा को दिल्ली में पहचाना और उसे 'हिंदवी' का नाम दिया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक यही हिंदवी देहलवी, हिंदी, उर्दू-ए-मु्अल्ला और उर्दू कहीं गई । तब लिपि का झगड़ा खड़ा नहीं हुआ था, क्योंकि यह तो वह ज़माना था कि जायसी अपनी अवधी फ़ारसी लिपि में लिखते थे और तुलसी अपनी अवधी नागरी लिपि में । लिपि का झगड़ा तो अँग्रेज़ी की देन है ।

मैं चूँकि लिपि को भाषा का अंग नहीं मानता हूँ, इसलिए कि ऐसी बातें, जो आले अहमद सुरूर और उन्हीं की तरह के दूसरे पेशेवर उर्दूवालों को बुरी लगती हैं, मुझे बिल्कुल बुरी नहीं लगतीं। भाषा का नाम तो हिंदी ही है, चाहे वह किसी लिपि में लिखी जाए। इसलिए मेरा जी चाहता है कि कोई सिरफिरा उठे और सारे हिन्दी साहित्य को पढ़कर कोई राय कायम करे। मुसहफी (उनकी किताब का नाम तजकरए-हिंदी) उर्दू के तमाम कवियों को हिंदी का कवि कहते हैं। मैं उर्दू लिपि का प्रयोग करता हूँ, परंतु मैं हिन्दी कवि हूँ और यदि मैं हिंदी का कवि हूँ तो मेरे काव्य की आत्मा सूर, तुलसी, जायसी के काव्य की आत्मा से अलग कैसे हो सकती है? यह वह जगह है, जहाँ न मेर साथ उर्दूवाले हैं और न शायद हिंदीवाले और इसीलिए मैं अपने बहुत अकेला-अकेला पाता हूँ ? परंतु क्या मैं केवल इस डर से अपने दिल की बात न कहूँ कि मैं अकेला हूँ । ऐसे ही मौक़ों पर मज़रूह सुलतानपुरी का एक शेर याद आता है :
मैं अकेला ही चला था जानिवे-मंज़िल मगर। 
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया ।।

और इसीलिए मैं हिम्मत नहीं हारता ! और इसीलिए बीच बज़ार में खड़ा आवाज़ दे रहा हूँ कि मेरे पुरखों में ग़ालिब और मीर के साथ सूर, तुलसी और कबीर के नाम भी आते हैं।
लिपि के झगड़े में मैं अपनी विरासत और अपनी आत्मा को कैसे भूल जाऊँ? न मैं एक लिपि की तलवार से अपने पुरखों का गला काटने को तैयार हूँ और न मैं किसी को यह हक देता हूँ कि वह दूसरी लिपि की तलवार से मीर, ग़ालिब और अनीस के गर्दन काटे । आप खुद ही देख सकते हैं कि दोनों तलवारों के नीचे गले हैं मेरे ही बुजुर्गों के।
हमारे देश का आलम तो यह है कि कनिष्क की शेरवानी को मुसलमानों के सर मार के हम हिंदू और मुसलमान पहनावों की बातें करने लगते हैं। घाघरे में कलियाँ लग जाती हैं तो हम घाघरों को पहचानने से इंकार कर देते हैं और मुगलों-वुगलों की बातें करने लगते हैं, परंतु कलमी आम खाते वक़्त हम कुछ नहीं सोचते ।ऐसे वातावरण में दिल की बात कहने से जी अवश्य डरता है, परंतु किसी-न-किसी को तो ये बातें कहनी ही पड़ेगी। बात यह है कि हम लोग हर चीज़ को मज़हब की ऐनक लगाकर देखते हैं। किसी प्रयोगशाला का उद्घाटन करना होता है, तब भी हम या मिलाद करते हैं या नारियल फोड़ते हैं तो भाषा इस ठप्पे से कैसे बचती और साहित्य पर यह रंग चढ़ाने की कोशिश क्यों न की जाती? चुनांचे उन्नीसवीं सदी के आखिर में या बीसवीं सदी के आरंभ में हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा लगाया गया। इस नारे में जिन तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे तीनों ही फ़ारसी के हैं हिंदी कहते हैं, हिंदुस्तानी को, हिंदू काले को और हिंदुस्तान हिंदुओ के देश को। यानी हिंदू शब्द किसी धर्म से ताल्लुक नहीं रखता। ईरान और अरब के लोग हिंदुस्तानी मुसलमानों को भी हिंदू कहते हैं यानी हिंदू नाम है हिंदुस्तानी कौम का।
मैंने अपने थीसिस में यही बात लिखी थी तो उर्दू के एक मशहूर विद्वान् ने यह बात काट दी थी परंतु मैं यह बात फिर भी कहना चाता हूँ कि हिंदुस्तान के तमाम लोग धार्मिक मतभेद के बावजूद हिंदू है। हमारे देश का नाम हिंदुस्तान है। हमारे क़ौम का नाम हिंदू और इसलिए हमारी भाषा का नाम हिन्दी । हिंदुस्तान की सीमा हिन्दी की सीमा है। यानी मैं भी हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा लगाता हूँ, परंतु मैं यह नारा उस तरह नहीं लगाता, जिस तरह वह लगाया जा रहा है। मैं एक मुसलमान हिंदू हूँ । कोई विक्टर ईसाई हिंदू होगा और मातादीन वैष्णव या आर्यसमाजी हिंदू । इस देश में कई धर्म समा सकते हैं, परंतु एक देश में कई क़ौमें नहीं समाया करतीं परंतु यह सीधी-सी बात भी अब तक बहुत से हिंदुओं (हिंदुस्तानियों) की समझ में नहीं आ सकी है।
हमें धर्म की यह ऐनक उतारनी पड़ेगी। इस ऐनक का नंबर गलत हो गया है् और अपना देश हमें धुँधला-धुँधला दिखाई दे रहा है। हम हर चीज़ को शक की निगाह से देखन लगे हैं। ग़ालिब गुलोहुलुल का प्रयोग करता है और कोयल की कूक नहीं सुनता, इसलिए वह ईरान या पाकिस्तान का जासूस है? हम आत्मा को नहीं देखते । वस्त्र में उलझकर रह जाते हैं। वे तमाम शब्द जो हमारी जबानों पर चढ़े हुए हैं, हमारे हैं। एक मिसाल लीजिए। ‘डाक’ अँग्रेज़ी का शब्द है। ‘खाना’ फारसी का। परंतु हम ‘डाकखाना’ बोलते हैं। यह ‘डाकखाना’ हिंदी का शब्द है। इसे ‘डाकघर’ या कुछ और कहने की क्या ज़रूरत ? अरब की लैला काली थी परंतु उर्दू गज़ल की लैला का रंग अच्छा-खासा साफ़ है। तो इस गोरी लैला को हम अरबी क्यों मानें ? लैला और मजनू या शीरीं और फरहाद का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है उस कहानी का, जो इन प्रतीकों के जरिए हमें सुनाई जा रही है परंतु हम तो शब्दों में उलझ कर रह गए हैं। हमने कहानियों पर विचार करने का कष्ट ही नहीं उठाया है। मैं आपको वही कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ । मैं आपको और मौलाना नदवी आले अहमद सुरूर और डॉक्टर फ़रीदी को यह दिखालाना चाहता हूँ कि मीर, सौदा, ग़ालिब और अनीस, सुर, तुलसी और कबीर ही के सिलसिले की कड़ियाँ हैं। फ़ारसी के उन शब्दों को कैसे देश निकाला दे दिया जाय, जिनका प्रयोग मीरा, तुलसी और सूर ने किया है? ये शब्द हमारे साहित्य में छपे हुए हैं। एक ईंट सरकाई गई, तो साहित्य की पूरी इमारत गिर पड़ेगी। मैं शब्दों की बात नहीं कर रहा हूँ। साहित्य की बात कर रहा हूँ। यह देखने का कष्ट उठाइए कि कबीर ने जब मीर बनकर जन्म लिया तो वे क्या बोल और जब तुलसी ने अनीस के रूप मे जन्म लिया तो उस रूप में उन्होंने कैसा रामचरित लिखा।
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